प्राचीन भारत का इतिहास

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प्राचीन भारतीय इतिहास से तात्पर्य प्रारंभ से 1200 ई. तक के काल के भारतीय इतिहास से है। इस काल के प्राचीन भारतीय इतिहास के निर्माण के लिए जिन तथ्यों और स्रोतों का उपयोग किया जाता है। उन्हें प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत कहते है। विद्वानों का मानना है कि, प्राचीन भारत के इतिहास की क्रमबद्ध जानकारी प्राप्त करने के लिए प्रामाणिक स्रोत नहीं मिलते है, इसी कारण कुछ पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वानों का मानना है कि, प्राचीन काल में भारतीयों में इतिहास लेखन के प्रति रूचि तथा इतिहास बुद्धि का अभाव था।

ग्यारहवीं सदी का पर्यटक विद्वान अलबरूनी भी लिखता है कि, 'हिन्दू घटनाओं के ऐतिहासिक क्रम की ओर अधिक ध्यान नहीं देते थे।' प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. आर. सी. मजूमदार भी कहते है कि, 'इतिहास लेखन के प्रति भारतीयों की विमुखता भारतीय संस्कृति का भारी दोष हैं।' किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत प्रचूर मात्रा में पुरातात्विक साक्ष्यों के रूप में उपलब्ध है।

डॉ. आर. एस. त्रिपाठी का मानना है कि, 'प्राचीन भारतीय साहित्य बहुत विस्तृत एवं समृद्ध होने पर भी इतिहास की सामग्री की दृष्टि से अत्यन्त निराशाजनक है। इसका कारण सम्भवतः ऐतिहासिक मेधा (इतिहास लेखन बुद्धि) की कमी रही होगी।' इस बारे में ए. एल. बाशम का कहना है कि, 'भारत का प्राचीन इतिहास पहेलियों के समान है जिनके बहुत से पन्ने खो गये हैं।'

इतिहास अतीत का अध्ययन हैं। इतिहास में अतीत की घटनाओं का कालक्रमानुसार अध्ययन किया जाता है। अतीत का पुनर्निर्माण विभिन्न तथ्यों को एकत्रित करके किया जाता हैं। तथ्य अनेक कई प्रकार के होते हैं, यही तथ्य इतिहास के स्रोत होते है, जो कि प्राथमिक और द्वितीयक स्रोतों के रूप में मिलते हैं। प्राथमिक स्रोतों में मूल स्रोत आते है, जैसे अभिलेख, मुद्राएँ, स्मारक भवन, मूर्तियाँ तथा पुरावशेष एवं मूल रचनाएँ जैसे वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत आदि सामग्री आती है। द्वितीयक स्रोतों के अंतर्गत प्रकाशित, अप्रकाशित प्रलेख या समस्त लिखित सामग्री आती है।

प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोतों का वर्गीकरण

प्राचीन भारतीय इतिहास के अध्ययन के स्रोतों को मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किया गया है :

  • पुरातात्विक साक्ष्य
  • साहित्यिक साक्ष्य

पुरातात्विक साक्ष्य

प्राचीन भारतीय इतिहास के ऐसे कई युग हैं जिनके विषय में मुख्य रूप से पुरातात्विक उत्खननों से प्राप्त सूचनाओं से जानकारी मिलती है। भारत के प्रागैतिहासिक काल के विषय में सम्पूर्ण जानकारी पुरातात्विक साक्ष्य पर ही आधारित है। भारतीय सभ्यता के प्रथम चरण सैन्धव सभ्यता के विषय में पुरातात्विक साक्ष्य से सहायता के बिना कुछ भी जान पाना असंभव था। कई स्थानों के पुरातात्विक उत्खननों से हमें ऐसी महत्त्वपूर्ण सूचनायें मिलती हैं जैसे शिशुपालगढ़, राजगृह, अरिकामेडू इत्यादि ऐतिहासिक युग के स्थानों पर उत्खनन कार्यों से हमें तत्कालीन युग के विषय में बड़ी ही महत्त्वपूर्ण सूचनायें मिली हैं।

पुरातात्विक साक्ष्य कई रूपों में मिलते हैं जैसे- बर्तन, मूर्तियाँ, भवन, अभिलेख, हथियार और औजार आदि। इनसे सामान्य जन-जीवन के विविध पक्षों पर प्रकाश पड़ता है। कभी-कभी इन साक्ष्यों से मनुष्यों की मान्यताओं और मूल्यों के विषय में भी अनुमान लगाया जा सकता है। पुरातात्विक साक्ष्यों को आगे निम्न श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है:

पुरावशेष

भारत में समय-समय पर होने वाले पुरातात्विक स्थलों के उत्खनन में प्रचुर संख्या में प्राचीन भारतीय संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। जैसे- मानव-मुण्ड, पाषाण-उपकरण, मृद्भाण्ड, लौह-उपकरण आदि। इनके सूक्ष्म अध्ययन से हमें अपनी प्रागैतिहासिक सभ्यता का ज्ञान होता है। बड़ी संख्या में ये उपकरण हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, पाटलिपुत्र, वैशाली, नालंदा, अयोध्या, अतिरंजीखेड़ा, कौशाम्बी आदि स्थानों पर हुए उत्खननों में प्राप्त हुए हैं, जो तत्कालीन धर्म, सामाजिक जीवन, नगर-व्यवस्था आदि पर प्रकाश डालते हैं। पाटलिपुत्र से मिले चन्द्रगुप्त मौर्य के महल के लकड़ी के अवशेष इस तथ्य पर प्रकाश डालते हैं कि चन्द्रगुप्त मौर्य के समय तक भारतीय स्थापत्य में लकड़ी का अधिक प्रयोग होता था और प्रासाद आदि के निर्माण में बहुतायत से पाषाण का प्रयोग अशोक के काल से प्रारम्भ हुआ था।

अभिलेख

भारतीय इतिहास में आभिलेखिक साक्ष्यों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अभिलेख वह लेख होते है, जो किसी पत्थर (चट्टान), धातु, लकड़ी या हड्डी पर खोदकर लिखें होते हैं। अभिलेखों के अध्ययन को 'पुरालेखशास्त्र' कहा जाता है। ब्राह्मी, खरोष्ठी तथा युनानी अभिलेख प्राचीन भारतीय इतिहास लिखने में बहुत सहायक हैं। ये अभिलेख अधिकांशतः स्तम्भों, शिलाओं, ताम्रपत्रों, मुद्राओं पात्रों, मूर्तियों, गुहाओं आदि में खुदे हुए मिलते हैं। भारत में सबसे पुराने अभिलेख अशोक के अभिलेख माने गए हैं, जो खरोष्टी लिपि या ब्राह्मी लिपि में लिखे गये हैं। पुराविदों का मानना है कि भारत में अब तक मिला सबसे प्राचीन अभिलेख पाँचवीं शताब्दी ई.पू. का 'पिप्रावा कलश' (जिला बस्ती) लेख हैं। इसके साथ ही, अजमेर से प्राप्त ‘बडली अभिलेख' अशोक के काल से पहले का माना जाता है। विश्व में प्राचीनतम अभिलेख मध्य एशिया के ‘बोगजकोई‘ नाम स्थान से क़रीब 1400 ई.पू. में पाये गये, जिनमें अनेक वैदिक देवताओं - इन्द्र, मित्र, वरुण, नासत्य आदि का उल्लेख मिलता है।

अभिलेखों एवं शिलालेखों से संबंधित शासकों के जीवन चरित्र, साम्राज्य-विस्तार, धर्म, शासन प्रबंध, कला तथा राजनीतिक स्थिति की जानकारी प्राप्त होती हैं। अभिलेखों एवं शिलालेखों से भाषा के विकास की भी जानकारी प्राप्त होती है। मौर्यकाल और ई. पू. तृतीय शताब्दी के अधिकतर अभिलेखों में प्राकृत भाषा का प्रयोग मिलता है, वहीं दूसरी शताब्दी ई. से गुप्त-गुप्तोत्तर काल अधिकतर अभिलेखों में संस्कृत में भाषा का प्रयोग मिलता है। साथ ही, यह बात भी उल्लेखनीय हैं कि, अभिलेखों में नौवीं-दशवीं शताब्दी ई. से स्थानीय एवं क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग किया जाने लगा था। इसके साथ ही, यह बात भी उल्लेखनीय हैं कि, गुप्तकाल से पहले के अधिकतर अभिलेखों में ब्राह्मणेत्तर धर्मों का तथा गुप्त एवं गुप्तेत्तर काल के अधिकतर अभिलेखों ब्राह्मण धर्म का उल्लेख मिलता है।

अशोक के अभिलेख भारत में पढ़े जाने वाले सबसे प्राचीन अभिलेख है। अशोक के लेख ब्राह्मी, खरोष्ठी, अरामाइक एवं ग्रीक, लिपि में मिलते हैं। साथ ही, अशोक के केवल चार अभिलेखों, मास्की (कर्नाटक), निठूर, उदेगोलम और गुज्जरी (जिला दतिया, म.प्र.) में अशोक का नाम मिलता है। अशोक के अभिलेखों में शिलालेख, स्तम्भलेख, गुहालेख सम्मिलित है। अशोक के चौदह बड़े शिलालेख, पंद्रह लघु शिलालेख, सात स्तम्भलेख, छः लघु स्तम्भलेख तथा चार गुहालेख प्राप्त है। अशोक के स्तम्भ लेखों से धर्म-प्रचार के लिए किए गए उसके प्रयासों एवं प्रजा की भलाई के लिए किये गये अशोक के कार्यों के बारे में जानकारी मिलती है। अशोक के शिलालेखों से उसके शासन तथा उसके नैतिक सिद्धान्तों की जानकारी मिलती है। इनसे अशोक के धर्म, उसके साम्राज्य-विस्तार, शासन-व्यवस्था आदि पर अच्छा प्रकाश पड़ता है।

देश में अशोक के अतिरिक्त अनेक शासकों अभिलेख प्राप्त है, जिनसे उनके व्यक्तिगत शासन एवं वंश की विविध जानकारी मिलती हैं, इनमें प्रमुख रूप से पुष्यमित्र शुंग का अयोध्या अभिलेख, कलिंगराज खारखेल का हाथीगुम्फा अभिलेख, गौतमी बलश्री का नासिक अभिलेख, रूद्रदामा का गिरनार अभिलेख, समुद्रगुप्त की ‘प्रयाग -प्रशस्ति', चन्द्रगुप्त द्वितीय का महरौली स्तम्भ लेख, स्कंद गुप्त का भितरी एवं जूनागढ़ लेख, भोज-प्रतिहार की ग्वालियर प्रशस्ति, हर्षवर्धन के मधुवन, बाँसखेड़ा एवं सोनीपत अभिलेख, पुलकेशिन द्वितीय का ऐहोल अभिलेख, बंगाल के पाल शासकों में धर्मपाल का खालिमपुर तथा देवपाल का मुंगेर अभिलेख तथा सेन शासक विजय सेन का देवपाड़ा अभिलेख, परमार शासकों में भोज परमार (1010 - 1055 ई.) की 'उदयपुर प्रशस्ति’, राष्ट्रकूटों के बारे में गोविन्द तृतीय के राधनपुर, वनिदिन्दोरी तथा अमोघवर्ष प्रथम के संजन दानपत्रों से विशेष जानकारी मिलती हैं।

मुहरें एंव सिक्के

इतिहास के स्त्रोत के रूप में सिक्कों का अपना विशेष महत्त्व है। उत्तरपश्चिमी भारत के अनेक भागों पर द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व से हिन्द युनानीशासकों का राज्य रहा है। अन्य साक्ष्यों से केवल 3-4 शासकों के नाम की जानकारी मिलती है, परन्तु सिक्कों के मिलने से हमें लगभग 40 राजाओं, रानियों और राजकुमारों इत्यादि के बारे में पता चलता है।

इसी प्रकार गुप्तकालीन शासक समुन्द्रगुप्त के काल के कुछ सिक्कों पर संस्कृत भाषा समुन्द्रगुप्त लिखा हुआ था और दूसरी और उसे वीणा वादन करते हुए चित्रित किया गया था जिससे ये पता चलाता है कि गुप्तकाल में समुन्द्रगुप्त नाम का महान शाषक हुआ जो वीणा वादन करता था। इससे हमे समुन्द्रगुप्त के बारे में पता चलने के साथ साथ यह भी ज्ञात हुआ कि भारत का सबसे पुराण वाद्य यंत्र वीणा है।

स्मारक तथा खंडहर

स्मारक तथा खण्डहर पुरातात्विक साक्ष्य के महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं। इनमे हम पुराने भवन, भवन अवशेषों, मूर्तियों, मृदभांडों इत्यादि को रख सकते हैं। इनसे वास्तुकला और शिल्पशास्त्र का ज्ञान तो होता ही है, साथ ही सामान्य जन-जीवन ओ लोगों के धार्मिक विश्वास इत्यादि के संबंध में भी महत्वपूर्ण सूचनायें मिलती हैं।

मूर्तियाँ तथा चित्र

अजन्ता की गुफाओं में बने चित्र भी इस दृष्टिकोण से बड़े महत्व के हैं। ये सोत अपने युग के धार्मिक विचारधारा को भी परिलक्षित करते हैं। इसी प्रकार गुप्तकाल में वैष्णव, बौद्ध, जैन एवं शैव धर्म को मूर्तियों काल में लोगों में धार्मिक सहिष्णुता को इंगित करती हैं। मूर्तियों और चित्रों भिन्न-भिन्न वेश-भूषा एवं हाव-भाव उस युग की धार्मिक एवं सामाजिक मान्यताओं की जानकारी प्रदान करते हैं।

साहित्यिक साक्ष्य

भारतीय समाज में धर्म का स्थान सर्वोपरि है। यहाँ समस्त सामाजिक एवं. नैतिक मूल्यों का निर्धारण धर्म के आधार पर किया जाता है। अतः प्राचीन भारतीय ग्रन्थों को भी धार्मिक आधार पर तीन वर्गों में विभाजित किया गया है। ब्राह्मण-ग्रन्थ, बौद्ध-ग्रन्थ, जैन-ग्रन्थ । इनके अतिरिक्त कुछ अन्य समसामयिक ग्रन्थ भी हैं, जो प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से भारतीय इतिहास पर प्रकाश डालते हैं। इस प्रकार भारतीय ग्रन्थों के पुनः चार वर्ग निर्धारित होते हैं:

  1. ब्राह्मण-धर्म से संबंधित ग्रंथ,
  2. बौद्ध-धर्म से संबंधित ग्रंथ,
  3. जैन-धर्म से संबंधित ग्रंथ तथा
  4. समसामयिक ऐतिहासिक ग्रंथ
  5. विदेशी यात्रियों के विवरण

ब्राह्मण-धर्म से संबंधित ग्रंथ

वेद

विश्व के प्राचीनतम साहित्य में वेदों का स्थान सर्वोपरि है। ये वेद चार हैं. ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद। इन्हें संहिता भी कहा जाता है। रचना-काल के आधार पर इन्हें दो वर्गों में बांटा गया है। पहले वर्ग में केवल ऋग्वेद है। इसका रचना-काल 1,500 ई०पू० से 1,000 ई०पू० तक माना जाता है तथा दूसरा वर्ग है उत्तर वैदिक साहित्य का। इसमें सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद आते हैं। इनका रचना-काल 1000 ई०पू० से 500 ई०पू० के मध्य माना जाता है। ऋग्वेद में दस मण्डल तथा 1028 सूक्त है। इसके कुछ मंत्रों में आर्यों के विस्तार तथा दाशराज्ञ युद्ध का उल्लेख मिलता है जिसमें राजा सुदास के नेतृत्व में भरत जनों ने दस राजाओं के एक संघ को पराजित किया था। सामवेद गायन-शैली में है। भारतीय संगीत की उत्पत्ति सामवेद से ही मानी जाती है। यजुर्वेद में यज्ञ-सम्बन्धी विधि-विधानों का उल्लेख है। इसके दो भाग है-कृष्ण यजुर्वेद तथा शुक्ल यजुर्वेद । कृष्ण यजुर्वेद में चार शाखाएँ हैं, जिन्हें काठकसंहिता, कपिष्ठलसंहिता, मैत्रायणीसंहिता तथा तैत्तरीयसंहिता कहा जाता है। पांचवी शाखा है-वाजसनेयीसंहिता, जो शुक्ल यजुर्वेद में रखी जाती है। सामवेद तथा यजुर्वेद से तत्कालीन सामाजिक तथा धार्मिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है। अथर्ववेद में 20 काण्ड तथा 731 सूक्त हैं। इसमें ब्रह्मज्ञान और धर्म के साथ-साथ जादू-टोना, औषधि-प्रयोग, धनुर्विद्या आदि विभिन्न विषयों का विवेचन है। अथर्ववेद के मंत्रों में आर्य एवं अनार्य संस्कृतियों का मिला-जुला रूप दिखायी देता है, जिससे प्रतीत होता है कि इस समय तक आर्यों एवं अनार्यों में सामंजस्य स्थापित हो गया था और वे अपनी-अपनी जीवन-शैली से एक दूसरे को प्रभावित करने लगे थे।

ब्राह्मण

वैदिक संहिताओं (चारों वेदों) पर लिखी गई गद्यमय टीकाओं को ब्राह्मण कहा जाता है जैसे ऐतरेय ब्राह्मण तथा कौषीतकिब्राह्मण में ऋग्वेद के मंत्रों पर शतपथब्राह्मण (इसे वाजसनेयब्राह्मण भी कहा जाता है) में यजुर्वेद के मंत्रों पर पंचविशब्राह्मण (इसे ताण्ड्यब्राह्मण भी कहा जाता है) में सामवेद के मंत्रों पर तथा गोपथब्राह्मण में अथर्ववेद के मंत्रों पर टीकाएं लिखी गयी हैं। इन ब्राह्मण-ग्रंथों में तत्कालीन सामाजिक तथा धार्मिक जीवन के साथ-साथ विभिन्न ऐतिहासिक राजवंशों का परिचय भी मिलता है।

आरण्यक

प्राचीन भारतीय दर्शन का आरम्भिक रूप आरण्यक ग्रंथों में निहित है। इनमें प्रमुख हैं- ऐतरेय आरण्यक, शांखायन आरण्यक, तैत्तरीय आरण्यक, मैत्रायणी आरण्यक. वृहदारण्यक, तलवकार आरण्यक आदि ।

उपनिषद

भारतीय दर्शन का विशद् विवेचन उपनिषदों की मूल विषय-वस्तु है। इनमें आत्मा, परमात्मा, ब्रह्म, जीव, सृष्टि आदि की व्याख्या की गयी है। इनकी संख्या 108 है, जिनमें वृहदारण्यक, छान्दोग्य, केन, ईश, कठ, मुण्डक आदि प्रमुख हैं। इनकी रचना 800 ई०पू० से 500 ई०पू० के बीच हुई मानी जाती है। इनके अध्ययन से राजा परीक्षित से लेकर बिम्बसार तक के इतिहास के ज्ञान में सहायता मिलती है।

वेदांग

वेदांगों में वैदिक साहित्य के गूढ़ अंशों को सरल रूप में समझाया गया है। इनकी कुल संख्या 6 है:

  • शिक्षा : शिक्षा में वैदिक मंत्रों का सही उच्चारण बताया गया है।
  • कल्प : कल्प सूत्रों में वैदिक कर्मों की मीमांसा है। इनकी रचना आठवीं शताब्दी ई०पू० के आस-पास मानी जाती है। इनकी संख्या चार है :
    • श्रौतसूत्र : श्रीतसूत्रों में यज्ञ सम्बन्धी सूत्रों का संकलन है।
    • गृह्यसूत्र : गृह्यसूत्रों में दैनिक कार्यों से सम्बन्धित सूत्रों का संकलन है।
    • धर्मसूत्र : धर्मसूत्रों में धर्म, समाज, एवं राजनीति से सम्बन्धित सूत्रों का संकलन है।
    • शुल्वसूत्र : शुल्वसूत्रों में यज्ञ वेदी आदि के निर्माण से सम्बन्धित सूत्रों का संकलन है।
  • निरूक्त : निरूक्त में वैदिक शब्दों की व्युत्पत्ति एवं स्वरूप का विवेचन है। यास्क तेरहवें निरूक्तकार थे, जो पाणिनि से पहले हुए थे।
  • व्याकरण : व्याकरण के अन्तर्गत भाषा से सम्बंधित नियम आते हैं। प्राचीन भारतीय व्याकरणाचार्यों में पाणिनि, कात्यायन एवं पतंजलि का नाम प्रमुख है। पाणिनि की अष्टाध्यायी व्याकरण का एक अनमोल ग्रंथ है। इसका रचना-काल छठी श० ई०पू० माना जाता है। इसमें कुल 18 अध्याय तथा 3863 सूत्र है। इस ग्रंथ से केवल व्याकरण का ही नहीं अपितु मौर्य-पूर्व तथा मौर्यकालीन भारत की राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक स्थिति का भी ज्ञान होता है। व्याकरणाचार्यों में पाणिनि के बाद कात्यायन का नाम उल्लेखनीय है। इन्होंने व्याकरण-सम्बन्धी जो कमियां अष्टाध्यायी में रह गई थीं उन्हें वार्तिक लिखकर दूर किया और दूसरी श० ई०पू० में पतंजलि ने पाणिनि की अष्टाध्यायी तथा कात्यायन के वार्तिकों की व्याख्या करते हुए एक अन्य व्याकरण-ग्रन्थ महाभाष्य की रचना की। यह ग्रन्थ संस्कृत व्याकरण का सर्वाधिक प्रामाणिक ग्रन्थ है। अष्टाध्यायी के समान इससे भी व्याकरण के साथ-साथ तत्कालीन भारत की राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक स्थिति का ज्ञान होता है। पुष्यमित्र शुंग के काल में भारत पर हुए यवन- आक्रमण का ज्ञान महाभाष्य से ही होता है।
  • छंद : छंद में आचार्य पिंगल का छंद - शास्त्र प्रमुख है।
  • ज्योतिष : ज्योतिष (गणित) में ब्रह्माण्ड, सौर मण्डल आदि का वर्णन है। प्राचीन ज्योतिषाचार्यो में लगध मुनि, आर्यभट्ट, वराह मिहिर आदि का नाम प्रमुख है।

उपवेद

उपवेद चार हैं - आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद तथा अर्थशास्त्र और इनमें भी अर्थशास्त्र की नीतिशास्त्र, शिल्पशास्त्र चतुष्षष्टिकलाशास्त्र, भौतिकशास्त्र आदि अनेक शाखाएँ हैं। इन सभी शाखाओं और उपशाखाओं में प्राचीन भारतीय ज्ञान का महासागर है, जो तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक इतिहास के ज्ञान में हमारी सहायता करता है।

षड्दर्शन

छठी श० ई०पू० से तीसरी श० ई०पू० के मध्य गौतम, कणाद, कपिल, पतंजलि, जैमिनि तथा बादरायण जैसे आचार्यों ने क्रमशः न्याय, वैशेषिक, सांख्य योग, पूर्वमीमांसा तथा उत्तरमीमांसा नामक छः दर्शन-शास्त्रों की रचना की थी।

स्मृति ग्रन्थ

इन्हें धर्मशास्त्र भी कहा जाता है। इनमें मनुस्मृति तथा याज्ञवल्क्यस्मृति सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। इनकी रचना दूसरी श० ई०पू० से लेकर दूसरी श० ई० के मध्य की गई थी। इनके अतिरिक्त अन्य स्मृति-ग्रन्थ हैं - विष्णुस्मृति, नारदस्मृति, पराशरस्मृति आदि, जिनका रचना-काल चौथी से छठी श० ई० के मध्य माना जाता है। वर्तमान भारतीय कानून का निर्माण इन्हीं स्मृति-ग्रन्थों के विवरणों के आधार पर किया गया है।

महाकाव्य

प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति के ज्ञान के स्रोत-रूप में रामायण एवं महाभारत नामक दो महाकाव्यों का स्थान भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इनमें से वाल्मीकिकृत रामायण की रचना छठी श० ई०पू० में हुई मानी जाती है। यह ग्रन्थ दशरथ और कौशल्या के पुत्र राम के जीवन-चरित्र पर लिखा गया है। राजनैतिक दृष्टि से इससे केवल इतना ही ज्ञात होता है कि रामायण-काल में भारतवासियों का कोई युद्ध यवन एवं शक जातियों के साथ हुआ था, किन्तु तत्कालीन भारत की नैतिक, धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति का अत्यन्त विस्तृत विवरण इस ग्रन्थ में देखने को मिलता है। इस ग्रन्थ में कुल सात काण्ड हैं, जिनमें से पहले तथा अन्तिम काण्ड के कुछ श्लोकों को प्रक्षिप्त माना जाता है। महर्षि व्यासकृत महाभारत की रचना पांचवी श० ई०पू० से चौथी श० ई० के बीच हुई मानी जाती है। इसमें कुल अट्ठारह पर्व तथा एक लाख श्लोक हैं। प्रारम्भ में इस ग्रन्थ का नाम जय था। बाद में भारत पड़ा और वर्तमान में यह महाभारत नाम से ज्ञात है। हरिवंश नाम से इसमें एक अतिरिक्त परिशिष्ट- पर्व भी है। मुख्य रूप से इस महाकाव्य का वर्ण्य विषय कौरव-पाण्डवों का युद्ध है, किन्तु साथ ही इसमें यूनानी, शक एवं पहलव नामक कुछ विदेशी जातियों का उल्लेख भी है। इसके अतिरिक्त इस महाकाव्य में विष्णु और शिव की उपासना विभिन्न स्थानों पर की गयी है और अनेक बार मन्दिरों एवं स्तूपों का उल्लेख भी हुआ है। संक्षेप में इस महाकाव्य से प्राचीन भारतीय राजनीति, धर्म एवं संस्कृति का व्यापक ज्ञान होता है।

पुराण

प्राचीन भारतीय इतिहास-लेखन के ब्राह्मण-धर्म-सम्बन्धी साहित्यिक स्रोतों में पुराणों का नाम सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। महापुराणों की संख्या अट्ठारह है और ये अट्ठारह महापुराण है मत्स्य वायु विष्णु ब्रह्माण्ड, भागवत, ब्रहा, पदम् नारदीय - मार्कण्डेय, अग्नि, भविष्य, ब्रह्मवैवर्त्त, लिंग, वराह, स्कन्द, वामन, कूर्म तथा गरूड़ । इनके अतिरिक्त साम्ब, आद्य, नारसिंह, कालिका आदि अनेकानेक अन्य उपपुराण भी हैं। इनमें से ऊपर दिये गए प्रथम पांच महापुराणों में विभिन्न प्राचीन भारतीय राजवंशों का विवरण उपलब्ध है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है। पुराणों का रचना-काल मुख्यतः गुप्त-काल के आस-पास माना जाता है।

बौद्ध-धर्म से संबंधित ग्रंथ

बौद्ध-धर्म से संबंधित ग्रन्थ पालि तथा संस्कृत दो भाषाओं में मिलते है। इनमें प्राचीनतम तथा सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं: पालि भाषा में रचित त्रिपिटक । त्रिपिटक की रचना ई०पू० की पांचवीं से पहली शती के बीच हुई बतायी जाती है। यह तीन पिटक है सुत्तपिटक, विनयपिटक तथा अभिधम्मपिटक सुत्तपिटक में गौतम बुद्ध के धार्मिक उपदेशों का संग्रह है। इसमें पांच निकाय हैं दीघनिकाय, मज्झिमनिकाय, संयुक्तनिकाय, अंगुत्तरनिकाय तथा खुद्दकनिकाय विनयपिटक में बौद्ध-संघ से 1 संबंधित विधि-विधानों का संग्रह है इसके भी तीन खण्ड हैं- सुत्तविभंग, खंदक और परिवार । अभिधम्मपिटक में गौतमबुद्ध के धार्मिक सिद्धान्तों को प्रश्नोत्तर-शैली में विवेचित किया गया है। इसमें कथावत्थु धम्मसंगणि, विभंग, धातुकथा, पुग्गलपंजति आदि ग्रन्थ आते हैं। पालि भाषा में रचित अन्य बौद्ध-ग्रन्थों को अनुपिटक कहा जाता है। अनुपिटकों में प्राचीन भारतीय इतिहास-लेखन की दृष्टि से मिलिन्दपन्हो, दीपवंश तथा महावंश का नाम महत्वपूर्ण है तथा संस्कृत बौद्ध-ग्रन्थों में बुद्धचरित, ललितविस्तर, दिव्यावदान, महावस्तु सौरदानन्द आदि उल्लेखनीय हैं।

जैन धर्म से संबंधित ग्रंथ

जैन-धर्म से सम्बन्धित ग्रन्थ मुख्यतः दो प्रकार के हैं- पुराण तथा आगम। जैन पुराणों को प्रायः चरित भी कहा जाता है। इनमें पद्मपुराण, उत्तरपुराण, आदिपुराण, महापुराण, महावीरचरित, आदिनाथचरित आदि का नाम प्राचीन भारतीय इतिहास के अध्ययन की स्रोत सामग्री के रूप में उल्लेखनीय है। ये पुराण (चरित) प्राकृत, संस्कृत तथा अपभ्रंश भाषाओं में हैं। जैन आगमों के अन्तर्गत प्रायः बारह अंगों, बारह उपांगों, दस प्रकीर्णको, छः छेदसूत्रों, एक नन्दिसूत्र, एक अनुयोगद्वार और चार मूलसूत्रों की गणना की जाती है। इनमें आचरंगसुत्त, सूयगदंगसुत्त, भगवतीसुत्त आदि का नाम महत्वपूर्ण है। इन जैन पुराणों तथा आगमों के अतिरिक्त इन पर लिखी गयी नेमिचन्द्रसूरि, हरिभद्रसूरि आदि जैन विद्वानों की टीकाएँ तथा हरिभद्रचरित, समराइच्चकहा, धूर्ताख्यान तथा कुवलयमाला नामक जैन-ग्रन्थ भी प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति पर पर्याप्त प्रकाश डालते हैं।

समसामयिक ग्रंथ

प्राचीन भारतीय कवियों ने उपर्युक्त धार्मिक ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य अनेक ऐसे ग्रन्थों की भी रचना की थी, जो प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से समसामयिक इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश डालते हैं। इनमें से कौटिल्य के अर्थशास्त्र, गार्गीसंहिता, कामन्दक के नीतिशास्त्र, बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र आदि को अर्ध-ऐतिहासिक तथा मुद्राराक्षस मालविकाग्निमित्र, हर्षचरित, गौडवहो, मंजुश्रीमूलकल्प, नवसाहसांकचरित, राजतरंगिणी, विक्रमांकदेवचरित, कुमारपालचरित, प्रबंधचिंतामणि, कीर्तिकौमुदी, वसंतविलास, अवन्तिसुन्दरीकथा, पृथ्वीराजविजय, रामचरित, हम्मीरमहाकाव्य, चचनामा आदि को ऐतिहासिक ग्रन्थों की श्रेणी में रखा जा सकता है। इनमें से अर्ध- ऐतिहासिक ग्रन्थ तयुगीन राजनीति, शासन-व्यवस्था, धर्म, समाज एवं संस्कृति पर तथा ऐतिहासिक ग्रन्थ उस समय होने वाली ऐतिहासिक घटनाओं पर प्रकाश डालते हैं।

यह सभी ग्रन्थ उत्तर-भारतीय इतिहास की रचना में सहायक हैं, जबकि दक्षिण भारतीय इतिहास की रचना में हमें सर्वाधिक सहायता तमिल तथा कन्नड़ साहित्य से मिलती है। पहली से चौथी श० ई० के बीच में पाण्ड्य-नरेशों ने एक संघ या परिषद का गठन किया था, जो सामूहिक रूप से तमिल भाषा में साहित्य की रचना करती थी। इसी कारण तमिल भाषा के इस साहित्य को संगम-साहित्य कहा जाता है। इसमें तोल्काप्पियम, दशग्राम्यगीत, अष्टसंग्रह और अष्टादशलघुगीत का नाम उल्लेखनीय है। इन तमिल रचनाओं से पाण्ड्य, चोल तथा चेर राजवंशों के इतिहास की जानकारी मिलती है। इनके अतिरिक्त शिल्पदिकारम्, मणिर्मकल्लै, जीवकचिंतामणि आदि दक्षिण भारतीय महाकाव्य भी संगम-साहित्य की कोटि में आते हैं। इसी प्रकार कुछ अन्य तमिल-ग्रन्थ, जिनकी रचना संगम-साहित्य के बाद हुई, वे भी दक्षिण भारतीय इतिहास के लेखन में सहायक है। इनमें चोलचरित, कलिंगत्तुपरणि तथा नन्दिक्कलम्बकम् का नाम उल्लेखनीय हैं। कन्नड़ साहित्य में कविराजमार्ग, विक्रमार्जुनविजय और गदायुद्ध नामक ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं, जिनसे चालुक्य तथा राष्ट्रकूट राजवंश के इतिहास के लेखन में सहायता मिलती है।

विदेशी यात्रियों के विवरण

प्राचीन भारतीय इतिहास के अध्ययन के स्रोत-रूप में विदेशी यात्रियों के विवरण अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। भारतीय विद्वानों ने भारत के विषय में जो कुछ भी लिखा है, उसमें अपने आश्रयदाता की प्रशंसा, आत्मप्रशंसा तथा किस्से-कहानियों का अंश अधि क है। इसके अतिरिक्त भारतीयों के विवरण तिथिबद्ध एवं सही क्रम में भी नहीं हैं। अतः भारतीय लेखकों के इन विवरणों की प्रमाणिकता को सिद्ध करने के लिए समय-समय पर भारत आने वाले विदेशी यात्रियों के विवरणों का तुलनात्मक अध्ययन अनिवार्य है। यद्यपि इन विदेशी यात्रियों के विवरण भी कई बार सुनी-सुनाई बातों पर आधारित होने के कारण पूर्णतया विश्वसनीय नहीं हैं. तथापि बहुत सी बातें, जो उन्होंने अपने अनुभव के आधार पर अथवा प्रत्यक्ष देखकर लिखी हैं, वे प्राचीन भारतीय इतिहास के लेखन में अत्यन्त उपयोगी हैं।

भारत में यूनानी लेखकों का आगमन सिकन्दर के आक्रमण से पूर्व प्रारम्भ हो चुका था। इन यूनानी लेखकों में स्काईलैक्स, हिकेटिअस मिलेटस, हेरोडोटस तथा केसियस का नाम महत्वपूर्ण है। स्काईलैक्स एक यूनानी सैनिक था, जिसे पारसीक- नरेश दारा ने सिंधु- प्रदेश की जानकारी प्राप्त करने के लिए भेजा था। हिकेटियस मिलेटस (549 ई०पू० - 496 ई०पू०) के ग्रन्थ 'भूगोल' से भी केवल सिंधुघाटी के प्रदेशों की ही जानकारी मिलती है, किंतु हेरोडोटस (484 ई०पू० - 431 ई०पू०) के ग्रन्थ 'हिस्टॉरिका' में भारत के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों की जातियों के बारे में कई सूचनाएँ मिलती हैं। केसियस (416 ई0पू0 – 398 ई०पू०) लिखित 'इण्डिका नामक ग्रन्थ से भी भारतवर्ष के बारे में कई सूचनाएँ मिलती हैं, किन्तु इन सभी प्रारम्भिक विद्वानों की सूचनाएँ प्रायः सुनी-सुनाई बातों पर आधारित होने के कारण पूर्णतया प्रामाणिक नहीं हैं।

सिकन्दर के साथ भारत में आने वाले लेखकों में निआकस, एरिस्टोब्यूलस और ओनेंसिक्रिटस के नाम महत्वपूर्ण हैं। यद्यपि इन विद्वानों के मूल लेख अब उपलब्ध नहीं हैं, तथापि प्लिनी, स्ट्रैबो, एरियन आदि परवर्ती विद्वानों ने अपनी पुस्तकों में इनके अनेक उदाहरण दिये हैं, जो भारतीय इतिहास के लिए उपयोगी हैं।

सिकन्दर के बाद भारत आने वाले विदेशी लेखकों में मेगस्थनीज़ डीमेकस, स्ट्रैबो प्लिनी, एरियन, डायोनीसियस, पैट्रोक्लीज, पॉलीबियस पेरीप्लस आदि यूनानी लेखकों तथा टॉलेमी नामक एक रोम लेखक का नाम उल्लेखनीय है। इन सब में मेगस्थनीज का विवरण अन्य सभी विद्वानों की अपेक्षा कहीं अधिक शुद्ध और स्पष्ट है। मेगस्थनीज़ चंद्रगुप्त मौर्य की राजसभा में यूनानी सम्राट् सेल्यूकस का राजदूत था। इसने भारतवर्ष पर इण्डिका नामक ग्रन्थ लिखा था, परन्तु अभाग्यवश वह ग्रन्थ विलुप्त हो गया। फिर भी परवर्ती लेखकों में इसके उद्धरण पाये गये हैं। उन्हीं को डॉ० स्वानवेक ने एक स्थान पर संग्रहीत कर 1846 में प्रकाशित किया। 1891 में मैकक्रिण्डल महोदय ने इस संग्रह का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया। इस अनुवाद को पढ़कर हम समझ सकते हैं कि मेगस्थनीज का विवरण पूर्वगामी लेखकों की अपेक्षा कितना अधिक सांगोपांग, स्पष्ट और शुद्ध था।"

प्राचीन काल में उपर्युक्त यूनानी तथा रोमन लेखकों के अतिरिक्त कुछ विदेशी विद्वान् चीन, तिब्बत और अरब से भी भारत आये थे। इनमें प्राचीनतम नाम चीनी इतिहासकार सुमाचीन (प्रथम श० ई०पू०) का है। भारत से सम्बन्धित कुछ सूचनाएँ इसके द्वारा लिखी गयी इतिहास की पुस्तक में उपलब्ध हैं, किन्तु इन सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं- फाह्यान एवं ह्वेनसांग के विवरण । फाह्यान भारत में 399 ई0 में आया था। इसने लगभग 15-16 साल तक भारत में रुक कर बौद्ध-धर्म का अत्यन्त बारीकी के साथ अध्ययन किया और चीन लौटने के बाद अपने अनुभवों को ट्रेवेल्स ऑफ फाह्यान नामक अपनी पुस्तक में लिपिबद्ध किया था। यह पुस्तक आज भी अपने मूल रूप में उपलब्ध है इस पुस्तक से चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के काल में भारत की धार्मिक एवं सामाजिक व्यवस्था पर व्यापक प्रकाश पड़ता है। ह्वेनसांग एक बहुत ही जागरूक एवं उत्साही चीनी यात्री था। यह 629 ई0 में भारत आया जब यहाँ हर्षवर्द्धन का शासन चल रहा था। इसने लगभग 13 वर्ष तक भारत में रूककर पूरे उत्तर भारत का भ्रमण किया और अपने अनुभवों को सि-यू-की नामक अपनी पुस्तक में लिपिबद्ध किया। इसके अनुभव सातवी श० ई० के उत्तर भारत के इतिहास की जानकारी के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं। यह लगभग छः साल तक हर्षवर्द्धन की राज्यसभा में भी रहा और इसने प्रयाग एवं कन्नौज के धार्मिक अधिवेशनों में भी भाग लिया। इसकी पुस्तक से तत्कालीन राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति पर व्यापक प्रकाश पड़ता है। इस प्रकार फाह्यान तथा ह्वेनसांग ने अपने व्यक्तिगत अनुभवों एवं भारत-भ्रमण के आधार पर भारत के विषय में जो कुछ भी लिखा वह भारतीय इतिहास के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। साथ ही स्कूली द्वारा लिखी गयी हवेनसांग की जीवनी से भी तत्कालीन भारत के विषय में अनेक जानकारियां मिलती है। चीनी यात्रियों में अंतिम नाम इत्सिंग का है, जो 613 ई० से 695 ई0 के बीच भारत आया था। इसके लेख भी तत्कालीन भारत की धार्मिक अवस्था पर पर्याप्त प्रकाश डालते है तिब्बती लेखकों में तारानाथ एवं धर्मस्वामी का नाम उल्लेखनीय है। अरब से आने वाले लेखकों में अल्बरूनी ( 9वीं 10वीं श० ई०) का नाम सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसने अपने ग्रन्थ तहकीके-हिन्द में तत्कालीन भारत के सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक जीवन पर बहुत कुछ लिखा है। अरब से आने वाले अन्य विद्वानों में सुलेमान, अलमसूदी, फिरदौशी तथा इब्ने खुर्दादब का नाम उल्लेखनीय है।