डॉ. राजेन्द्र प्रसाद
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद स्वतंत्र भारत के प्रथम महामहिम राष्ट्रपति बनाए गए थे। इनका कार्यकाल 26 जनवरी, 1950 से 19 मई, 1962 तक रहा। इन्हें सर्वप्रथम 26 जनवरी, 1950 को सर्वसम्मति से राष्ट्रपति मनोनीत किया गया। फिर देश की संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार 1952 में राष्ट्रपति का निर्वाचन किया गया और वह 5 वर्ष के लिए राष्ट्रपति बनाए गए। इसके बाद उन्हें दोबारा 5 वर्ष के लिए राष्ट्रपति चुना गया। यह एक ऐसे राष्ट्रपति हैं जिनकी सादगी और कर्तव्य निष्ठा के लिए इन्हें हमेशा स्मरण किया जाता रहेगा।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद
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पूरा नाम | डॉ. राजेन्द्र प्रसाद |
जन्म | 3 दिसम्बर, 1883 |
जन्म भूमि | ग्राम जेरादेई, जिला सिवान, बिहार |
मृत्यु | 28 फरवरी 1963 |
मृत्यु स्थान | पटना |
अभिभावक | माता - कमलेश्वरी देवी पिता - महादेव सहाय |
पति/पत्नी | राजवंशी देवी |
जन्म एवं परिवार
डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद का जन्म 3 दिसम्बर, 1883 को बिहार के सिवान जिले के जेरादेई ग्राम में हुआ था। डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद के पुरखे मूल रूप से उत्तर प्रदेश के अमोरहा ग्राम के रहने वाले थे और राजसी कायस्थ परिवार से संबंधित थे। कालांतर में इनके पुरखों ने बिहार के बलिया नामक शहर को अपना निवास और कर्मक्षेत्र बना लिया। इनके दादा का नाम श्री मिश्रीलाल, पिता का नाम महादेव सहाय एवं माता का नाम कमलेश्वरी देवी था। इनके एक भाई और तीन बहनें थीं। यह परिवार में सबसे छोटे थे। इनके पिता महादेव सहाय पर्शियन एवं संस्कृत भाषा के अच्छे ज्ञाता थे। राजेन्द्र प्रसाद को परिवार में धार्मिक वातावरण प्राप्त था। चूंकि इनकी माता कमलेश्वरी देवी इन्हें बचपन में रामायण की कथाएं सुनाया करती थीं, इस कारण रामायण का पाठ करना इनकी जिन्दगी का प्रमुख हिस्सा बन गया। राजेन्द्र प्रसाद को 5 वर्ष की उम्र में ही मौलवी के पास पर्शियन भाषा सीखने के लिए भेज दिया गया था ।
विद्यार्थी जीवन
प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए राजेन्द्र प्रसाद का दाखिला छपरा के जिला स्कूल में करवाया गया। चूंकि उस समय शादियां कम उम्र में ही हो जाती थीं, इस कारण बालक राजेन्द्र का विवाह भी मात्र 12 वर्ष की उम्र में राजवंशी देवी के साथ सम्पन्न कर दिया गया। विवाह के बाद उच्च अध्ययन के लिए इन्हें पटना के आर.के. घोष अकादमी में भेजा गया, जहां इनके बड़े भाई महेन्द्र प्रसाद भी साथ गए। यहां रहते हुए राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। 1902 में युवा राजेन्द्र प्रसाद ने कोलकाता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात प्रेसिडेंसी कॉलेज से इंटरमीडिएट और स्नातक की परीक्षा विशिष्ट योग्यता के साथ उत्तीर्ण की। प्रेसिडेंसी कॉलेज (कोलकाता विश्वविद्यालय से संबंधित) के अंतर्गत उस समय बंगाल, बिहार, असम, उड़ीसा और वर्मा के कुछ प्रांत भी आते थे। इस कारण कॉलेज की शिक्षा का स्तर काफी उन्नत था। स्नातक स्तरीय परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात भी राजेन्द्र प्रसाद की ज्ञान पिपासा शांत नहीं हुई। इस कारण उन्होंने एम. ए. एवं एल. एल. बी की कक्षाओं में प्रवेश प्राप्त किया। उस समय एम.ए और विधि की परीक्षा एक साथ दी जा सकती थी।
इसी दौरान, 1906 में राजेन्द्र प्रसाद ने बिहार में विद्यार्थी संगठन का गठन किया। इस संगठन का नाम 'बिहारी स्टूडेण्ट्स कांफ्रेंस' था। इसे संयोग ही कहा जाना चाहिए कि तत्कालीन भारत में विद्यार्थियों का यह पहला संगठन था (यह संगठन बाद में, 1930 के असहयोग आंदोलन तक भी जारी रहा तथा इसमें संगठन की विशिष्ट भूमिका रही)। सन, 1907 में इनके पिता श्री महादेव सहाय का निधन हो गया और इसी वर्ष इन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति भी हुई, जिसका नाम मृत्युंजय रखा गया।
व्यावसायिक जीवन
1908 में इन्होंने अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. किया और इसी वर्ष के जुलाई माह में मुजफ्फरपुर के कॉलेज में इन्हें अध्यापन का अवसर भी प्राप्त हो गया। लेकिन यहां इन्होंने एक वर्ष तक ही अध्यापन का कार्य किया, क्योंकि, 1909 में इन्हें कोलकाता के एक कॉलेज में अर्थशास्त्र के व्याख्याता के रूप में नियुक्ति प्राप्त हो गई। 1911 में इन्हें विधि की स्नातक उपाधि प्राप्त हुई। फिर इन्होंने कोलकाता उच्च न्यायालय में प्रैक्टिस आरंभ कर दी।
कुछ समय गुजरने के पश्चात कोलकाता के ही एक विधि कॉलेज में श्री राजेन्द्र प्रसाद को प्रोफेसरशिप प्राप्त हो गई। इनकी प्रतिभा के कारण अवसरों के द्वार इनके लिए खुलते जा रहे थे लेकिन इन्हें जीवन में बुलंदियों का आकाश भी छूना था। 1906 में इन्होंने कांग्रेस के सहयोगी के रूप में कार्य करना आरंभ कर दिया। फिर 1911 में कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता प्राप्त कर । उस समय गोपाल कृष्ण गोखले ने 'सर्वेण्ट्स ऑफ इण्डिया सोसाइटी' नामक संस्था का गठन किया था। राजेन्द्र प्रसाद की हार्दिक इच्छा थी कि वह उस संस्था से जुड़ जाएं लेकिन परिवार के विरोध के कारण श्री गोखले की उक्त संस्था के साथ इनका जुड़ाव नहीं हो सका।
विधि व्यवसाय में राजेन्द्र प्रसाद ने स्वयं को अच्छी तरह से स्थापित कर लिया था। जब पटना की स्वतंत्र हाई कोर्ट बनी, उसके पूर्व ही इन्होंने विधि में स्नातकोत्तर उपाधि प्रथम श्रेणी में प्राप्त कर ली थी। राजेन्द्र प्रसाद का यह भी सौभाग्य रहा कि कोलकाता उच्च न्यायालय के अंतर्गत विधि व्यवसाय करते हुए इन्हें कानून के तत्कालीन दिग्गजों, यथा- रास बिहारी घोष और लॉर्ड एस.पी. सिन्हा के साथ कार्य करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। मार्च, 1915 में पटना उच्च न्यायालय का पृथक अस्तित्व होने के पश्चात राजेन्द्र प्रसाद पटना आ गए। तब यहां इन्होंने दो उल्लेखनीय उपलब्धियां प्राप्त कीं- पहली, सीनेट की प्राथमिक सदस्यता प्राप्त हुई और दूसरी 1917 में पटना विश्वविद्यालय की सिण्डीकेट में इनका नाम सम्मिलित कर लिया गया। इस समय इनकी आयु मात्र 33 वर्ष थी। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के अलावा यह स्वयं को अध्यवसाय में भी पूर्णतया स्थापित कर चुके थे। उस समय पढ़ाई का स्तर काफी उन्नत होता था। इस कारण अत्यंत मेधावी युवा ही उच्च शिक्षा प्राप्त करने में समर्थ हो पाते थे ।
राजनीतिक जीवन
राजेन्द्र प्रसाद को महात्मा गांधी से मिलने का प्रथम सौभाग्य 1916 में कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन के दौरान मिला, जो लखनऊ में आयोजित किया गया था। इस अधिवेशन की विशेषता यह थी कि कांग्रेस के दो विरोधी समूह उसमें उपस्थित थे और गांधीजी की भी कांग्रेस में प्रविष्टि हुई थी। लेकिन यह अलग बात है कि कांग्रेस के लिए नवोदित होते हुए भी वह चर्चित एवं प्रतिष्ठित व्यक्तित्व के मालिक बन चुके थे। अफ्रीका में रंगभेद की नीति के विरुद्ध किया गया उनका विरोध जगजाहिर हो चुका था। भारत आगमन के पश्चात गांधीजी ने सादगी को अंगीकार करते हुए भारतीयों के मध्य अपना एक विशिष्ट स्थान भी बना लिया था
गांधीजी के सम्पर्क में आने के बाद डॉ. राजेन्द्र प्रसाद राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम के प्रति समर्पित होते चले गए। 1920 में इन्होंने विधि व्यवसाय बंद कर दिया और 1921 में सीनेट के अतिरिक्त पटना विश्वविद्यालय सिण्डीकेट की सदस्यता से भी त्यागपत्र दे दिया। राजेन्द्र प्रसाद चाहते थे कि वह बिहार में असहयोग आंदोलन का नेतृत्व करें। इस समय इनके पुत्र मृत्युंजय और धनंजय स्कूल में अध्ययन कर रहे थे। इन दोनों ने भी बाद में बिहारी विद्यापीठ और राष्ट्रीय स्कूल के माध्यम से असहयोग आंदोलन की प्रस्तावना तैयार की। यह पिता के राष्ट्रप्रेम का ही प्रभाव था कि दोनों पुत्र भी स्कूली जीवन के दौरान स्वाधीनता संग्राम में रुचि रखने लगे थे। 1921 में ही राष्ट्रीय जागृति के उद्देश्य से इन्होंने 'देस' नामक साप्ताहिक समाचार पत्र प्रकाशित करना आरंभ कर दिया। कुछ समय पश्चात यह सप्ताह में दो बार प्रकाशित होने वाले 'सर्चलाइट' अखबार के निदेशक भी बनाए गए। 1924 में राजेन्द्र प्रसाद को पटना नगर परिषद के चेयरपर्सन बनाया गया। लेकिन एक वर्ष बाद 1925 में इन्होंने चेयरमैनशिप से त्यागपत्र दे दिया।
गांधीजी से प्रभावित होने के पश्चात ही स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित भारतीय राजनीति में राजेन्द्र प्रसाद का प्रवेश हुआ था। इन पर गांधी जी का इतना प्रभाव था कि इन्होंने जमी-जमाई वकालत भी छोड़ दी जबकि यह अपनी योग्यता के आधार पर भारतीय प्रशासनिक सेवा में कोई भी ऊंचा पद अंग्रेज सरकार से प्राप्त कर सकते थे। 1927 में राजेन्द्र प्रसाद ने सिलोन (वर्तमान में श्रीलंका) प्रवास भी किया जो मद्रास में कांग्रेस अधिवेशन सत्र के पश्चात आरंभ किया गया था। मार्च, 1928 में यह प्रथम बार वर्मा केस के संबंध में इंग्लैंड गए। इंग्लैंड और यूरोप जाने से पूर्व इन्होंने वहां के शाकाहारी होटलों की सूची बना ली थी, ताकि गलती से भी इनके शाकाहार में कोई त्रुटि न होने पाए। 1929 में इन्होंने बर्मा की यात्रा भी की।
इस समय तक राजेन्द्र प्रसाद का नाम राष्ट्रीय स्तर के नेताओं में सम्मिलित हो चुका था। बिहार में जब इन्होंने नमक सत्याग्रह आरंभ किया तो पण्डित नेहरू ने भी इसमें व्यापक सहयोग दिया और स्वयं भी उपस्थित रहे । इन्हें 1929 से 1936 तक बिहार प्रदेश का कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया। यह छपरा और हजारीबाग की जेलों में बंद रहे। जेल से मुक्त होने के पश्चात वह पण्डित मोतीलाल नेहरू के पास इलाहाबाद चले गए। पण्डित मोतीलाल नेहरू का स्वास्थ्य इन दिनों भारी गिरावट की ओर था। वह मृत्यु के करीब थे। तब स्वराज्य भवन में राजेन्द्र प्रसाद उनके साथ रहे। मृत्यु के निकट पहुंचे पण्डित मोतीलाल नेहरू के सान्निध्य ने उन्हें जीवन की नई परिभाषा प्रदान की। इससे उनके जीवन में सादगी का अतिरिक्त समावेश हुआ तथा देश को स्वतंत्र कराने का उनका संकल्प अधिक परवान चढ़ा ।
15 जनवरी, 1934 को बिहार में अभूतपूर्व भूकम्प आया और उससे पूरा बिहार सहम उठा। सैकड़ों व्यक्ति मारे गए, हजारों व्यक्ति घायल हुए तथा लाखों व्यक्ति बेघर हो गए। मानवता का करुण क्रंदन चहुं ओर व्याप्त था । राजेन्द्र प्रसाद ने बिहार में भूकम्प राहत शिविरों की स्थापना करके पीड़ित मानवता की सेवा करना आरंभ कर दिया। लेकिन उन्हीं दिनों दुर्भाग्य से बिहार को भीषण बाढ़ के प्रकोप का भी सामना करना पड़ा। दोनों प्राकृतिक आपदाओं से मुकाबला करने के दौरान राहत एवं बचाव कार्य में राजेन्द्र प्रसाद की केन्द्रीय भूमिका रही। इस दौरान तत्कालीन बिहार के इस शीर्ष नेता को महात्मा गांधी और पण्डित नेहरू सहित सभी बड़े नेताओं का सहयोग एवं समर्थन प्राप्त हुआ ।
बिहार की जनता के मध्य राजेन्द्र प्रसाद की छवि एक मसीहा की भाँति बन गई। लेकिन राजेन्द्र प्रसाद के व्यक्तिगत जीवन में यह समय दारुण दुख लेकर आया। इन्हें अपनी जिन्दगी का वह समय देखना पड़ा, जब इनके बड़े भ्राता महेन्द्र प्रसाद का असामयिक निधन हो गया। बड़े भ्राता का इनके जीवन में बहुत बड़ा स्थान था।
1934 में क्वेटा (अब पाकिस्तान में) में भीषण भूकम्प आया और जान-माल की भारी तबाही हुई। उस समय राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में एक सहायता समिति गठित करके सहायता राशि प्राप्त की गई। राजेन्द्र बाबू चाहते थे कि वह स्वयं भी क्वेटा जाकर भूकम्प पीड़ितों की सहायता करें। लेकिन ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें क्वेटा जाने की अनुमति प्रदान नहीं की। यह वह समय था, जब ब्रिटिश हुकूमत हिन्दुओं और मुसलमानों के मध्य भेदभाव पैदा करने का कार्य कर रही थी। हिन्दुओं और मुसलमानों का संगठित स्वरूप ब्रिटिश राज के लिए ख़तरा नजर आ रहा था। चूंकि क्वेटा मुस्लिम बहुल क्षेत्र था, अतः राजेन्द्र प्रसाद को क्वेटा जाने की अनुमति नहीं मिली
1935 में, कांग्रेस की स्थापना के 50 वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर स्वर्ण जयंती समारोह का आयोजक इनकी अध्यक्षता में मुंबई में सम्पन्न हुआ। उस समारोह में डॉक्टर पट्टाभि सीतारमैया ने कांग्रेस के इतिहास पर प्रकाश डाला और राजेन्द्र प्रसाद ने अध्यक्षीय भाषण दिया। इस समारोह में ही कांग्रेस की संसदीय समिति का गठन हुआ। सरदार पटेल को इस चेयरमैन बनाया गया तथा मौलाना आजाद और राजेन्द्र प्रसाद इसके सदस्यों में सम्मिलित किए गए।
1937 में संयुक्त प्रोविंस के मुख्यमंत्री पण्डित पंत ने डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद से आग्रह किया कि वह उस समय गठित की गई जांच समिति की चेयरमैनशिप करें, जो कानपुर के श्रमिकों की समस्याओं से संबंधित थी। उस समय समिति को जो तथ्यात्मक प्रतिवेदन राजेन्द्र प्रसाद ने प्रस्तुत किए थे, वह आज भी महत्वपूर्ण दस्तावेज माने जाते हैं। ये दस्तावेज समस्त भारत के श्रमिकों की कार्यशील दशा से संबंधित थे ।
1937 में राजेन्द्र प्रसाद को इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने इनके मानवोचित कार्यों के लिए 'डॉक्टर' मानद उपाधि प्रदान की। उसके पश्चात इनके नाम से पूर्व डॉक्टर की उपाधि लगाना आरंभ कर दिया गया। 1938 में बिहार राज्य सरकार द्वारा तीन समितियाँ गठित की गईं। उनमें से एक श्रमिक जांच समिति, दूसरी शिक्षा जांच समिति एवं तीसरी हिन्दुस्तानी समिति थी। इन तीनों समितियों का प्रथम चैयरमैन राजेन्द्र प्रसाद को ही बनाया गया था। 30 अप्रैल, 1939 को सुभाषचन्द्र बोस ने कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोड़ दिया, तब नए अध्यक्ष का कार्यभार राजेन्द्र प्रसाद ने ही ग्रहण किया।
1940 में सीकर (राजस्थान) में रहते हुए डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद का स्वास्थ्य ठीक नहीं था, तब भी इन्होंने अपनी आत्मकथा लिखने का कार्य किया। उन्होंने इसी वर्ष विशाखापट्टनम में शिपयार्ड बिल्डिंग की आधार शिला रखी जो सिंधिया नेवीगेशन कम्पनी की इमारत थे।
राजेन्द्र प्रसाद को ब्रिटिश हुकूमत ने 9 अगस्त, 1942 से 14 जून, 1945 तक पटना की बांकीपुर जेल में 3 वर्ष कारावास की सजा दी। इसी दौरान 1943 में बंगाल में भयानक अकाल पड़ा और लाखों व्यक्ति उसकी चपेट में आ गए। अन्न के एक-एक दाने को मानवता तरस गई। राजेन्द्र प्रसाद कहते थे कि उस कठिन समय में वह बंगाल जाकर भूख से पीड़ित मानवता की सेवा करें। लेकिन अंग्रेज सरकार ने उन्हें आजादी नहीं दी और न ही अंग्रेजों ने बंगाल दुर्भिक्ष का युक्तियुक्त रूप से सामना किया।
सुभाषचन्द्र बोस द्वारा गठित आजाद हिन्द फौज के कारण अंग्रेज यूं भी बंगाल की जनता से बहुत कुपित थे, इसलिए उन्होंने बंगाल की स्थिति को भयावह हो जाने दिया। इस दुर्भिक्ष में 50,000 व्यक्तियों की मृत्यु हुई थी । राजेन्द्र प्रसाद ने लम्बे कारावास के दौरान अपना लेखन कार्य और अध्ययन जारी रखा। अगस्त, 1945 में इन्होंने 'इण्डियन डिवाइडिड' (विभाजित भारत) की पाण्डुलिपि तैयार कर ली। यह जनवरी, 1946 में पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुई और कुछ ही माह बाद दूसरा संस्करण भी प्रकाशित करना पड़ा। यह भी संयोग था कि जब कस्तूरबा गांधी की 1944 में मृत्यु हुई, तब भी राजेन्द्र प्रसाद जेल में ही थे। कस्तूरबा गांधी इन्हें पुत्रवत स्नेह करती थीं। अंग्रेज सरकार ने तब भी इन्हें मुक्त नहीं किया था।
स्वतंत्रता की आहटें आने लगी ।। अंग्रेजों ने भारतीय कांग्रेस को अंतरिम सरकार बनाने का न्यौता दे दिया था। राजेन्द्र प्रसाद 2 सितम्बर, 1946 को अंतिम सरकार खाद्य एवं कृषि मंत्री बनाए गए। समय की स्थितियों में यह चुनौतीपूर्ण दायित्व था, क्योंकि तब भारतीय कृषि मानसून पर आधारित थी और सिंचाई की पर्याप्त सुविधाएं नहीं थीं। लेकिन राजेन्द्र प्रसाद ने इस चुनौती को बखूबी स्वीकार किया। यही कारण है कि 1946 के अंत तक भूख से होने वाली मौतों के आंकड़ों में कमी दर्ज की गई।
डॉ.राजेन्द्र प्रसाद ने खाद्य एवं कृषि मंत्रालय का कार्यभार अंतरिम सरकार में 16 माह तक संभाला। उन्होंने अपनी ओर से खाद्यान्नों के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता पाने के लिए काफी प्रयास किए। फिर भी जो कमियां रहीं, उसकी जिम्मेदारी भी स्वयं ली। 1946 में आचार्य जे. बी. कृपलानी द्वारा त्यागपत्र दिए जाने के बाद इन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष का दायित्व पुनः संभाला और 1947 में इन्हें पुनः अध्यक्ष चुना गया।
इसके बाद पूर्व 11 दिसम्बर, 1946 को डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को संविधान निर्मात्री सभा का चेयरमैन चुन लिया गया। तब उस समय की कई देदीप्यमान विभूतियों ने भी इसका पूर्णतया सहयोग किया। इनमें सरोजनी नायडू, एम. गोपालस्वामी आयंगर और सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन जैसे व्यक्ति सम्मिलित थे। संविधान निर्माता का कार्य करते हुए इन्होंने विनम्रता, धैर्य और विपुल साहस का परिचय दिया।
15 अगस्त, 1947 को डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद और संविधान निर्मात्री सभा के अन्य सदस्यों ने सरकार के शासन हेतु संवैधानिक शक्ति प्रदान करने का कार्य भी किया। 14 जनवरी, 1948 को इन्होंने खाद्य एवं कृषि मंत्री के पद से त्यागपत्र दे दिया। फिर 26 नवम्बर, 1949 को इनकी सदारत में संविधान का लिखित स्वरूप तैयार किया गया। इस प्रकार देश का संविधान तैयार करने में इन्होंने महान भूमिका का निर्वहन किया। डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद ने पर्शियन भाषा सीखी थी और देवनागरी लिपि के अक्षरों से यह परिचित भर ही थे। इन्होंने रामायण के अतिरिक्त हिन्दी में किसी अन्य पुस्तक का अध्ययन भी नहीं किया था। लेकिन बाद में इन्हें हिन्दी तथा हिन्दी साहित्य से बहुत लगाव हो गया । इन्होंने कई हिन्दी पुस्तकों की रचना की तथा हिन्दी के विकास के लिए सराहनीय कार्य भी किए।
डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद का मानना था कि समस्त भारत में हिन्दी भाषा बोलने-समझने में आसानी है, अतः भारत की मातृभाषा हिन्दी ही होनी चाहिए, यद्यपि हिन्दी भाषा अपनाने में देश को काफी समय लग गया। इसके लिए संविधान में परिवर्तन हेतु 15 वर्षों का प्रावधान रखा गया, ताकि अंग्रेजी का स्थान पूर्ण रूप से हिन्दी भाषा से ले सके। लेकिन वह चाहते थे कि दक्षिण भारत में हिन्दी को जबरन न थोपा जाए। वह तीन भाषाओं के पक्षधर थे- एक प्रदेश की स्थानीय भाषा दूसरी अंग्रेजी भाषा और तीसरी हिन्दी भाषा । उनका यह भी मानना था कि अंतर्राष्ट्रीय गतिविधियों के संचालन हेतु अंग्रेजी भाषा का ज्ञान होना अपरिहार्य है।
डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद का मत था कि शिक्षा का माध्यम मातृभाषा में होना चाहिए। वह कहते थे कि व्यक्ति मातृभाषा द्वारा ही साहित्य की सेवा और अपने ज्ञान की अभिवृद्धि कर सकता है। इसके अतिरिक्त उन्होंने महिला स्वतंत्रता एवं महिला साक्षरता पर भी जोर दिया।
राष्ट्रपति पद पर
इस समय तक डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद ने यह साबित कर दिया था कि वह देश के सच्चे सिपाही होने के अतिरिक्त ईमानदार, कर्मठ एवं विद्वता के क्षेत्र में किसी अन्य व्यक्ति से कमतर नहीं हैं। गांधीवादी विचारधारा का प्रतिरूप बन चुके डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान का प्रारूप तैयार करने में जिस प्रकार योगदान दिया था, वह सराहनीय था। भारतीय संविधान में राष्ट्राध्यक्ष के बतौर राष्ट्रपति पर पद सृजित किया गया था। 24 जनवरी, 1950 को संविधान निर्मात्री सभा जो उस समय अस्थायी संसद भी थी, ने राष्ट्रपति पद हेतु डॉक्टर प्रसाद का नाम सर्वसम्मति से प्रस्तुत कर दिया।
तदनुसार 26 जनवरी, 1950 को (इसी दिन से भारत का संविधान लागू किया गया था।) प्रातः 10:15 पर दरबार हॉल में इन्हें प्रथम राष्ट्रपति की शपथ दिलाई गई। इस समय 31 तोपों की सलामी भी दी गई। उसके बाद राष्ट्रपति भवन डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का आवास बन गया। यह भवन ब्रिटिश गवर्नर जनरल • हेतु बनवाया गया था और यही राष्ट्रपति भवन बना था। इस संदर्भ की सूचना राष्ट्रीय गजट में विशेष अधिसूचना के अंतर्गत संख्या एफ 66/1/50 (सार्वजनिक) दिनांक 26 जनवरी, 1950 को दी गई।
चूकि देश में कोई भी आम चुनाव 1952 से पूर्व नहीं हुआ था और सवैधानिक व्यवस्था के अनुसार राष्ट्रपति मनोनीत करना भी आवश्यक था, इसीलिए डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद को 26 जनवरी, 1950 को सर्वसम्मति से राष्ट्रपति पद के लिए मनोनीत करते हुए राष्ट्रपति बनाया गया था। लेकिन देश में, 1959 का आम चुनाव हो जाने के बाद सवैधानिक व्यवस्था के अनसार राष्ट्रपति का निर्वाचन आवश्यक था, अतः इस निर्वाचन प्रक्रिया की पूर्ति की गई और डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद को 5 वर्ष के लिए राष्ट्रपति चुना गया।
मंगलवार, 3 मई, 1952 को प्रातः 8:30 पर संविधान सभा के कक्ष में 31 तोपों की सलामी के साथ राजेन्द्र प्रसाद ने शपथ ग्रहण की। इसकी सूचना गृह `मंत्रालय के मामलों के अंतर्गत राष्ट्रीय गजट (विशिष्ट) में भाग 1 क्रमांक 1 संख्या 35/6/52 सार्वजनिक दिनांक 16 मई, 1952 को प्रकाशित की गई। राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने संसद को भी सम्बोधित किया। उन्होंने कहा कि राष्ट्र को प्रगति के पथ पर अग्रसर करने हेतु कर्मठता आवश्यक है। प्रमाद तथा अकर्मण्यता का कोई भी स्थान अब शेष नहीं रहना चाहिए
1957 में जब भारतवर्ष का दूसरा आम चुनाव सम्पन्न हुआ तो डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद के प्रथम कार्यकाल का भी अवसान हो रहा था। ऐसे में अखिल भारतीय कांग्रेस पार्टी ने डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद को पुनः राष्ट्रपति पद के लिए प्रस्तावित किया और चुनाव प्रक्रिया के बाद इन्हें लगातार दूसरी बार निर्वाचित किया गया। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद पुनः राष्ट्रपति भवन पहुँचे। सोमवार, 13 मई, 1957 की सुबह 8:30 पर इन्होंने राष्ट्रपति के पद पर गोपनीयता की संवैधानिक शपथ ग्रहण की। इस संदर्भ में सूचना भारत सरकार के शासकीय गजट (विशिष्ट) में भाग 2 वर्ग 3 दिनांक 13 मई, 1957 के अंतर्गत एस. आर. आर. 1615 प्रकाशित की गई। दूसरा कार्यकाल जारी रहने के दौरान डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद ने 1960 में यह स्पष्ट कर दिया कि अपने राष्ट्रपति सत्र की समाप्ति के बाद वह पुनः राष्ट्रपति नहीं बनना चाहते। इस प्रकार उन्होंने अवकाश ग्रहण करने की पूर्व घोषणा कर दी थी।
यहां पण्डित नेहरू एवं डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद अर्थात देश के प्रथम प्रधानमंत्री तथा देश के प्रथम राष्ट्रपति के मध्य के रिश्तों को भी परिभाषित करना प्रासंगिक होगा। यह सच है कि 1950 में डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद का अंतरिम राष्ट्रपति पर मनोनयन सर्वसम्मति से हुआ था। लेकिन 1952 में प्रधानमंत्री पंडित नेहरू चाहते थे कि राजाजी (राजगोपालाचारी) को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया जाए। परंतु सरदार वल्लभभाई पटेल की इच्छा थी कि डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद ही राष्ट्रपति बनें
इसी प्रकार 1957 में जब राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया का आगाज हुआ तो प्रधानमंत्री पण्डित नेहरू की पहली पसंद डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन थे। लेकिन यह डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद की विद्वता और राजनीतिक व्यवहार का ही कमाल था कि उन्होंने लगातार 12 वर्षों तक राष्ट्रपति पद पर रहते हुए अपने कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक निर्वहन किया । यह सच है कि पण्डित नेहरू और डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद की सोच एवं व्यक्तित्व में रेखांकित किया जाने वाला अंतर मौजूद था। लेकिन इन महान व्यक्तियों के मध्य होते हुए भी उन्होंने अंतर मौजूद था। लेकिन इन महान व्यक्तियों के मध्य अंतर होते उन्होंने सदैव संविधान की मर्यादाओं का पालन किया। हुए भी
डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद राष्ट्रपति के रूप में मंत्रियों एवं अफसरों से प्रत्यक्ष व्यवहार करते थे लेकिन इसके लिए प्रधानमंत्री पण्डित नेहरू ने कभी कोई आपत्ति नहीं की। इसका कारण यह था कि दोनों नेताओं ने लम्बा समय एक ही पार्टी में रहते हुए देश की स्वतंत्रता हेतु व्यतीत किया था। इसलिए वे एक दूसरे के स्वभाव से परिचित थे यही कारण है कि दोनों महापुरुषों ने सवैधानिक मर्यादाओं का पालन करते हुए पद की गरिमा बनाए रखी।
वैसे डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद यह जानते थे कि 1952 और 1957 के राष्ट्रपति चुनावों के समय वह पण्डित नेहरू की पहली पसंद नहीं थे। यह इन दोनों महान व्यक्तियों की चारित्रिक विशिष्टता थी। इसी कारण 12 वर्षों में कभी ऐसा मौका नहीं आया जिससे यह प्रतीत होता कि देश के प्रथम नागरिक और प्रधानमंत्री के मध्य किसी प्रकार का गतिरोध है। दोनों ने संसदीय प्रजातंत्र के महान मूल्यों को सदैव बनाए रखा।
व्यक्तित्व के अन्य पहलू
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद राष्ट्रपति होने से पहले एक इंसान थे और एक इंसान के रूप में उनके व्यक्तित्व के कई पहलू रहे हैं। वह बेहतरीन शिक्षाविद् होने के साथ-साथ कानूनविज्ञ भी थे। लेकिन महात्मा गांधी आह्वान पर वह अपना -कैरियर दांव पर लगाकर देशसेवा के कार्य में जुट गए थे। जब देश में असहयोग आंदोलन अपने चरम पर था, तब इन्होंने महात्मा गांधी के परामर्श से अपने पुत्र मृत्युंजय प्रसाद को ब्रिटिश शिक्षा पद्धति का बहिष्कार करने हेतु ब्रिटिश विश्वविद्यालय से पृथक कर लिया। फिर इन्होंने मृत्युंजय का दाखिला बिहार विद्यापीठ में करवाया। यह भी उन आदर्श संस्थानों में से एक था, जिन्हें भारतीय मानकों के अनुसार शिक्षा प्रदान करने हेतु डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद एवं इनके साथियों ने स्थापित किए थे। इस प्रकार राजेन्द्र प्रसाद ने स्वयं उदाहरण प्रस्तुत करके राष्ट्र के नौजवानों का आह्वान किया कि वे प्रत्येक ब्रिटिश वस्तु एवं सेवा का बहिष्कार करें।
डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद का नाम महान विचारकों एवं दर्शनशास्त्रियों की सूची में ऑकेत रहा है। उन्होंने देश और समाज हेतु कई सुधारवादी कार्यक्रमों का आगाज किया जिनमें से अस्पृश्यता उन्मूलन एवं नारी शिक्षा प्रमुख थी। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के समाज सुधारक विचारों की झलक इनकी पुस्तकों में भी मिलती है। 1917 में ‘चम्पारन सत्याग्रह का इतिहास' शीर्षक से लिखी गई. इनकी एक पुस्तक प्रकाशित हुई। फिर इन्होंने 1946 में जेल में रहते हुए 'विभाजित भारत' की रचना की, जो 1946 में प्रकाशित हुई। तत्पश्चात ‘महात्मा गांधी के चरणों में शीर्षक से इनकी एक अन्य पुस्तक 1955 में प्रकाशित हुई। इसी प्रकार 1942-45 के मध्य जेल में रहते हुए इन्होंने अपनी आत्मकथा का भी लेखन किया। फिर यह संशोधित आत्मकथा 1957 में प्रकाशित हुई । तदुपरांत 1960 'आजादी से लेकर अब तक' शीर्षक से लिखी गई इनकी एक दूसरी पुस्तक भी प्रकाशित हुई ।
बाद में दिल्ली विश्वविद्यालय ने इन्हें डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान की। उपाधि ग्रहण समारोह में राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद ने भर्राए स्वर में कहा था- "मेरे जीवन की यह वास्तविक इच्छा थी कि मैं डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त करूं, लेकिन वह इच्छा मानद उपाधि हेतु नहीं थी। मैं डॉक्टरेट की वह उपाधि चाहता था, जिसमें मेरा कठिन परिश्रम रहा होता और मैंने काफी पसीना बहाया होता। लेकिन मेरी अभिलाषा के मध्य जब राष्ट्रसेवा का प्रश्न आया तो मैंने अभिलाषा का त्याग कर राष्ट्रसेवा का वरण किया।"
डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद ने देश प्रथम राष्ट्रपति के रूप में 1956 में नेपाल; 1958 में जापान, मलाया, इण्डोनेशिया, चीन, कम्बोडिया, उत्तरी एवं दक्षिणी
वियतनाम और लालोस 1959 में सिलोन (श्रीलंका) तथा 1960 में सोवियत संघ की सद्भावना यात्रा की।
डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद को जब देश के सबसे बड़े संवैधानिक अधिकारी के रूप में 10,000 रुपये वेतन एवं 2,500 रुपये अन्य भत्तों हेतु दिया गया तो सादा जीवन गुजारने वाले इस महापुरुष ने इसे अत्यधिक बताते हुए जुलाई, 1960 में 2,500 रुपयों की स्वैच्छिक कटौती करवा दी। सामाजिक समारोह में भी इनका भारतीय स्वरूप देखने को प्राप्त होता था। वह नमस्कार की 'मुद्रा लोगों का अभिवादन करते थे। में
इस प्रकार भारतीयता का प्रत्येक विनम्र अंश डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद में सदैव जीवित रहा। राष्ट्रपति का पद इनमें अहंकार का भाव कभी नहीं जाग्रत कर सका। वह कार्यकर्ताओं के मध्य एक युवराज की हैसियत रखते थे लेकिन वस्त्रों से एक साधारण इंसान का प्रतिनिधित्व करते नजर आते थे । राजेन्द्र बाबू का मानना था कि विश्व ईश्वर की रचना है और मनुष्य का भाग्य ईश्वर द्वारा ही पूर्व निर्धारित होता है। इन्हें गांधी जी के प्रति हार्दिक लगाव था जो उनके कार्यों से भी परिलक्षित होता था । यही कारण है कि वह अपने व्यक्तिगत कार्य स्वयं ही करना पसंद करते थे। गांधीजी को भी उनके इस समर्पण भाव की पूर्ण जानकारी थी ।
गांधीजी ने राजेन्द्र बाबू के साथ अपने रिश्ते को परिभाषित करते हुए कहा था-"मैं समझता हूँ कि ऐसा व्यक्ति अवश्य मौजूद है जो मेरे हाथ से विष का प्याला लेने में भी कोई संकोच नहीं करेगा। वह इंसान राजेन्द्र प्रसाद हैं।" यह गांधीजी के विश्वास की पराकाष्ठा थी जो उन्हें राजेन्द्र प्रसाद पर था। 1960 में राजेन्द्र प्रसाद को अभिनव भारती समाज की ओर से 'राष्ट्र रत्न की उपाधि दी गई। वह ऐसे प्रथम व्यक्ति बने जिन्हें जीवन के हर क्षेत्र का ज्ञान पाने के कारण यह उपाधि 'श्रंगरी शारदा पीठ' द्वारा दी गई।
डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद के जीवन में एक दुखद संयोग भी घटा 25 जनवरी, • 1960 को इनकी बड़ी बहन श्रीमती भगवती देवी का निधन हो गया । भगवती देवी बहन होने के अतिरिक्त इनसे मां जैसा स्नेह भाव रखती थीं। अगले दिन गणतंत्र दिवस था और गणतंत्र दिवस की परेड की सलामी लेने के बाद ही वह अपनी बहन के अंतिम क्रियाकर्म में शरीक हो पाए।
13 मई, 1962 को राजेन्द्र बाबू का राष्ट्रपति पद का कार्यकाल समाप्त हो गया। तब वह राष्ट्रपति भवन से सदाकत आश्रम में पहुंच गए। वह अपनी वृद्धावस्था इस आश्रम में ही गुजारना चाहते थे। 1962 में इन्हें भारतीय गणराज्य का सर्वोत्तम नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' प्रदान किया गया। सितम्बर, 1962 में इन्हें अपनी पत्नी राजवंशी देवी का मृत्यु प्रदत्त विछोह भी सहन करना पड़ा। यह बहुत बड़ा दुख था। वृद्धावस्था में जीवन सांगना का विछोह इनके लिए भी घातक साबित हुआ। पत्नी के निधन के छह माह बाद अर्थात 28 फरवरी, 1963 को रात्रि 10:10 पर सदाकत आज़म में देश के इस सच्चे सपूत 'ने 'राम-राम' शब्द के साथ आंखें मूंद लीं। इस प्रकार भारतवर्ष रूपी नक्षत्र का एक देदीप्यमान सितारा सदैव के लिए टूटकर अलग हो गया। राष्ट्रपति महात्मा गांधी ने सत्याग्रह आंदोलन के इस सिपाही की प्रशंसा करते हुए 1917 के चम्पारन अभियान संदर्भ में अपनी जीवनी में लिखा है- 'राजेन्द्र बाबू और ब्रजकिशोर बाबू के रूप में दो अद्वितीय व्यक्तियों का जोड़ा मेरे पास था। इनके समर्पण के बिना मेरे लिए एक कदम उठाना भी
मुश्किल और असम्भव था ।"
इसी प्रकार के उद्गार 1940 में पण्डित नेहरू ने भी अभिव्यक्ति किए थे, जब राजगढ़ में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ था। नेहरू जी ने कहा था- "हम अकसर गलतियां करते हैं। हम गलत कदम उठा लेते हैं। हमारी जुबान गलती कर बैठती है। लेकिन एक ऐसा व्यक्ति भी है जो कभी गलती नहीं करता, जिसकी जुबान न गलती करती है और न फिसलती है, जिन्हें अपने कथन का खण्डन करने अथवा भूल सुधार की भी आवश्यकता नहीं होती तथा जो श्रम उन्होंने किया, उसे पुनः करने की आवश्यकता भी नहीं रही; वह व्यक्ति राजेन्द्र प्रसाद हैं।" पण्डित नेहरू ने प्रशंसा अपने हृदय से की थी। देश का प्रधानमंत्री बनने के बाद राष्ट्रपति के रूप में राजेन्द्र प्रसाद उनकी प्राथमिकता अवश्य न रहे हों (इसके पीछे राजनीतिक कारण ही जिम्मेदार थे) लेकिन वह हृदय से सदैव डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद का सम्मान करते 1
महात्मा गांधी के सम्पर्क में आने के बाद डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद स्वाधीनता संग्राम से पूरी तरह जुड़ थे। इसके पूर्व वह अंग्रेज राज में वकालत का पेशा सफलतापूर्वक अंजाम दे रहे थे। मातृभूमि के प्रति उसके बेटे का क्या कर्तव्य होता है-यह पाठ महात्मा गांधी से पढ़ने के बाद इन्होंने अपना चमकता भविष्य ऐसे त्याग दिया, जैसे कोई मुसाफिर नयनाभिराम दृश्य को देखते हुए मंजिल की ओर बढ़ जाता है। वह स्वभाव से शांत और धीर-गंभीर प्रकृति के थे तथा संसद में भी मर्यादित संभाषण करते थे । एक बार डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद ने स्वयं के संदर्भ में कहा था- "मैं पहले एक वकील हुआ करता था। फिर मैंने अंग्रेजों के स्थापित कानूनों को तोड़ा और बाद में स्वतंत्र भारत के लिए कानून प्रदान करने (संविधान निर्माण संदर्भ) का कार्य किया ।" सरोजनी नायडू ने भारत के इस शिखर पुरुष के संबंध में 'शहद समूह
की संज्ञा प्रदान की थी जबकि सरदार पटेल ने इन्हें 'एक्सरे प्लांट' के रूप में
संबोधित किया था।
डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद एक सरल व्यक्तित्व के धारक थे और गांधीजी के परम अनुयायी भी। देश की स्वाधीनता हेतु अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए इन्होंने अंग्रेजों की खिलाफत की और जीवन के कई वर्ष जेल में गुजारे। किसी योद्धा के समान इनकी बड़ी-बड़ी मूंछें और आकर्षक चेहरा इतिहास परिवर्तन का विलक्षण साक्षी रहेगा। यह इतिहास परिवर्तन के महानायक बने। जो शख्स कभी ब्रिटिश एवं वाइसरॉय की जेल में रहा, वही एक दिन वाइसरॉय के महल का अधिकारी बन गया और वाइसरॉय के सुरक्षा प्रहरी उसके अंगरक्षक बन गए। अतः भारतभूमि के इस सच्चे सपूत को देश सदैव याद रखेगा। डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद ने अपने जीवन के माध्यम से अनेक दृष्टांत प्रस्तुत किए हैं, जिन्हें अपनाकर महानता की मंजिल पर पहुंचा जा सकता है। बेशक युग परिवर्तन होते रहेंगे लेकिन डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद की पथ प्रदर्शक छवि में कभी भी कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। वह मानवता के कारण भारतीय इतिहास में सदैव अमर रहेंगे।