इतिहास

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वर्तमान में विगत की घटनाओं का लेखा-जोखा इतिहास कहलाता है। प्राचीन भारत में इतिहास शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण माध्यम था। भारतीय मनीषियों ने अपने विद्यार्थियों को शिक्षा देते समय ऐतिहासिक दृष्टांतों का प्रचुर प्रयोग किया है और इसी लिए कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में इतिहास की परिभाषा देते समय इतिवृत्त के साथ-साथ पुराण, आख्यायिका, उदाहरण, धर्मशास्त्र एवं अर्थशास्त्र को भी इतिहास की श्रेणी में रखा है -

पुराणमितिवृत्तमाख्यायिकोदाहरणम् । धर्मशास्त्रमर्थशास्त्रं चेतिहासः ।।

वस्तुतः भारत में सदैव से नैतिक मूल्यों का स्थान सर्वोपरि रहा है। भारतीयों ने इतिहास का प्रयोग मुख्य रूप से नयी पीढ़ी को सदैव सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देने के लिए किया था। इसीलिए उनके साहित्य में राजनैतिक घटनाओं के तिथियुक्त यथातथ्य-विवरण की अपेक्षा आदर्शवादी धार्मिक एवं दार्शनिक विचारों का उल्लेख अधिक मिलता है।


भारतीय इतिहास का स्वरूप, महत्व एवं परिभाषा

प्राचीन भारतीय मनीषियों ने ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख करते समय उनकी तिथियों का उल्लेख नहीं किया है और घटनाओं के सही क्रम पर भी ध्यान नहीं दिया है। अतः प्रारम्भ में एलफिंस्टन, कावेल, फ्लीट आदि विदेशी विद्वानों का विचार था कि भारत के प्राचीन मनीषियों में इतिहास- बुद्धि नहीं थी। अल्बरूनी ने भी लिखा था कि हिन्दू तथ्यों के ऐतिहासिक क्रम पर विशेष ध्यान नहीं देते थे, वे क्रमानुसार विवरण के प्रति लापरवाह थे और जब उन्हें सही सूचना देने के लिए बाध्य किया जाता था तब वे किंकर्तव्यविमूढ़ होकर कहानियां सुनाने लगते थे, किन्तु आज भारतीय इतिहास के मूल रूप की ऊपर दी गई व्याख्या के बाद ये विचार औचित्यहीन हो जाते हैं।

इतिहास-लेखन की प्रवृत्ति भारतीयों में प्रारम्भ से ही विद्यमान थी। ऐतिहासिक दाशराज्ञ- युद्ध का उल्लेख ऋग्वेद के मंत्रों में हुआ है। परीक्षित से लेकर बिम्बसार से पूर्व तक की घटनाओं का उल्लेख ब्राह्मण-ग्रन्थों में मिलता है। मानव-जीवन से सम्बन्धित समस्त नियमों, विशेष रूप से राजधर्म, न्याय आदि का सुन्दर संकलन धर्मसूत्रों में उपलब्ध है। छठी श० ई०पू० से द्वितीय श० ई०पू० के बीच की अनेक ऐतिहासिक घटनाओं के लिए पाणिनि, कात्यायन एवं पतंजलि के विवरणों को प्रामाणिक माना जाता है। द्वितीय श० ई०पू० और उसके बाद के भारतीय इतिहास से सम्बन्धित बहुमूल्य सामग्री स्मृति-ग्रन्थों, महाकाव्यों, पुराणों तथा अन्य बहुसंख्यक समसामयिक ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन-ग्रन्थों में भरी पड़ी है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने लिखा है कि भारतवर्ष में राज्य की महत्वपूर्ण घटनाओं को लिपिबद्ध करने के लिए राजकीय पदाधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी। कश्मीरी विद्वान् कल्हण ने अपनी राजतरंगिणी में उसी गुणवान् कवि को प्रशंसनीय बताया है, जो रागद्वेष का बहिष्कार करके भूतकाल की घटनाओं का यथावत् वर्णन करें-

श्लाघ्यः स एव गुणवान् रागद्वेष बहिष्कृता । भूतार्थ कथने यस्य स्थेयस्येव सरस्वती ।।

NORTHI) उपर्युक्त सभी विवरण इस तथ्य के परिचायक हैं कि प्राचीन भारतीयों में इतिहास-लेखन की प्रवृत्ति थी, किन्तु उनका इतिहास-लेखन का दृष्टिकोण विदेशी लेखकों से नितांत भिन्न था।

प्राचीन भारत का भौगोलिक परिचय तथा राष्ट्रीय एकता

भारत विश्व के प्राचीनतम देशों में एक है। डॉ० राजबली पाण्डेय के अनुसार इस देश का नाम 'भारत ऋग्वेद में वर्णित एक शक्तिशाली एवं सभ्य जन-समुदाय भरत के नाम पर पड़ा। विष्णुपुराण में समुद्र के उत्तर तथा हिमालय के दक्षिण में स्थित देश को 'भारतवर्ष तथा वहाँ के निवासियों को भारती कहा गया है-

उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमादेश्चैव दक्षिणम् । वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र संततिः ।।

151926 कि भारतवर्ष के अतिरिक्त इस देश के दो अन्य प्रचलित नाम हिन्दुस्तान और "इण्डिया भी हैं। हिन्दुस्तान नाम मूलतः ईरानियों को देन है। ईरानी भाषा में स को ह कहा जाता है। इसीलिए सिंधु नदी को हिन्दु तथा उसके समीप स्थित प्रदेश को हिन्दुस्थान कहा गया, जो बाद में बदलकर हिन्दुस्तान हो गया। इसी प्रकार इण्डिया नाम मूलतः यूनानियों की देन है। यूनानी भाषा में सिन्धु नदी को इण्डस कहा जाता था और उसी के आधार पर उन्होंने इण्डस के समीपवर्ती क्षेत्र को इण्डिया' नाम दिया किन्तु 1947 ई. में अंग्रेजों से स्वतन्त्र होने के बाद नये संविधान में इस देश के भारत नाम को ही स्वीकार किया गया है।

प्राचीन काल में भारत की सीमाएँ उत्तर-पश्चिम में पामीर के पठार और हिन्दुकुश पर्वत से लेकर पूर्व में नागा, खासी, गोरा आदि पहाड़ियों तक और उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक विस्तृत थीं। भौगोलिक दृष्टि से इस देश को चार भागों में बाँटा गया है-

उत्तर का पहाड़ी क्षेत्र - इसके अन्तर्गत कश्मीर, कांगड़ा, टेहरी,