डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन: Difference between revisions
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'''"यह विश्व के दर्शन शास्त्र का सम्मान है कि महान भारतीय गणराज्य ने डॉक्टर राधाकृष्णन को राष्ट्रपति के रूप में चुना और एक दार्शनिक को राजा होना चाहिए और महान भारतीय गणराज्य ने एक दार्शनिक को राष्ट्रपति बनाकर प्लेटो को सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित की है।"''' | '''"यह विश्व के दर्शन शास्त्र का सम्मान है कि महान भारतीय गणराज्य ने डॉक्टर राधाकृष्णन को राष्ट्रपति के रूप में चुना और एक दार्शनिक को राजा होना चाहिए और महान भारतीय गणराज्य ने एक दार्शनिक को राष्ट्रपति बनाकर प्लेटो को सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित की है।"''' | ||
1962 में ग्रीस के राजा ने जब भारत का राजनयिक दौरा किया तो डॉक्टर राधाकृष्णन ने उनका स्वागत करते हुए कहा था- "महाराज! आप ग्रीस के पहले राजा हैं जो भारत में अतिथि की तरह आए हैं। अलेक्जेण्डर यहां अनियंत्रित मेहमान बनकर आए थे।" (अलेक्जेण्डर ने भारत पर आक्रमण किया था और वह हमलावर की हैसियत से आया | 1962 में ग्रीस के राजा ने जब भारत का राजनयिक दौरा किया तो डॉक्टर राधाकृष्णन ने उनका स्वागत करते हुए कहा था- "महाराज! आप ग्रीस के पहले राजा हैं जो भारत में अतिथि की तरह आए हैं। अलेक्जेण्डर यहां अनियंत्रित मेहमान बनकर आए थे।" (अलेक्जेण्डर ने भारत पर आक्रमण किया था और वह हमलावर की हैसियत से आया था।) | ||
राष्ट्रपति बनने के बाद राधाकृष्णन ने भी पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद की भांति स्वैच्छिक आधार पर राष्ट्रपति के वेतन से कटौती कराई थी। उन्होंने घोषणा की कि सप्ताह में दो दिन कोई भी व्यक्ति उनसे बिना पूर्व अनुमति लिए मिल सकता है। इस प्रकार राष्ट्रपति भवन को उन्होंनें सर्वहारा वर्ग के लिए खोल दिया । राष्ट्रपति बनने के बाद वह ईरान, अफगानिस्तान, इंग्लैण्ड, अमेरिका, नेपाल, यूगोस्लाविया, चेकोस्लोवाकिया, रूमानिया तथा आयरलैंड भी गए। वह अमेरिका के राष्ट्रपति भवन 'व्हाइट हाउस' में हेलीकॉप्टर से अतिथि के रूप में पहुंचे थे। इससे पूर्व विश्व का कोई भी व्यक्ति व्हाइट हाउस में हेलीकॉप्टर द्वारा नहीं पहुंचा था। | राष्ट्रपति बनने के बाद राधाकृष्णन ने भी पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद की भांति स्वैच्छिक आधार पर राष्ट्रपति के वेतन से कटौती कराई थी। उन्होंने घोषणा की कि सप्ताह में दो दिन कोई भी व्यक्ति उनसे बिना पूर्व अनुमति लिए मिल सकता है। इस प्रकार राष्ट्रपति भवन को उन्होंनें सर्वहारा वर्ग के लिए खोल दिया । राष्ट्रपति बनने के बाद वह ईरान, अफगानिस्तान, इंग्लैण्ड, अमेरिका, नेपाल, यूगोस्लाविया, चेकोस्लोवाकिया, रूमानिया तथा आयरलैंड भी गए। वह अमेरिका के राष्ट्रपति भवन 'व्हाइट हाउस' में हेलीकॉप्टर से अतिथि के रूप में पहुंचे थे। इससे पूर्व विश्व का कोई भी व्यक्ति व्हाइट हाउस में हेलीकॉप्टर द्वारा नहीं पहुंचा था। | ||
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चीन के युद्ध में पराजित होने के बाद डॉक्टर राधाकृष्णन ने पण्डित नेहरू की भी आलोचना की थी। बेशक वह पण्डित नेहरू के काफी निकट थे, लेकिन उन्होंने आलोचना के स्थान पर आलोचना की और मार्गदर्शन की आवश्यकता होने पर मार्गदर्शन भी किया। यह राधाकृष्णन ही थे, जिन्होंने पण्डित नेहरू को मजबूर किया कि वह लालबहादुर शास्त्री को केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में स्थान प्रदान करें। उस समय कामराज योजना के अंतर्गन शास्त्री जी बिना विभाग के मंत्री थे। पण्डित नेहरू के गम्भीर रूप से बीमार होने के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय शास्त्रीजी के परामर्श से ही चलता था। डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कार्यालय में ही पण्डित नेहरू और शास्त्रीजी की प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए मृत्यु हुई थी। लेकिन दोनों बार नए प्रधानमंत्री का चयन सुगमतापूर्वक किया गया जबकि दोनों बार उत्तराधिकारी घोषित नहीं था और न ही संवैधानिक व्यवस्था में कोई निर्देश था कि ऐसी स्थिति में क्या किया जाना चाहिए। | चीन के युद्ध में पराजित होने के बाद डॉक्टर राधाकृष्णन ने पण्डित नेहरू की भी आलोचना की थी। बेशक वह पण्डित नेहरू के काफी निकट थे, लेकिन उन्होंने आलोचना के स्थान पर आलोचना की और मार्गदर्शन की आवश्यकता होने पर मार्गदर्शन भी किया। यह राधाकृष्णन ही थे, जिन्होंने पण्डित नेहरू को मजबूर किया कि वह लालबहादुर शास्त्री को केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में स्थान प्रदान करें। उस समय कामराज योजना के अंतर्गन शास्त्री जी बिना विभाग के मंत्री थे। पण्डित नेहरू के गम्भीर रूप से बीमार होने के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय शास्त्रीजी के परामर्श से ही चलता था। डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कार्यालय में ही पण्डित नेहरू और शास्त्रीजी की प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए मृत्यु हुई थी। लेकिन दोनों बार नए प्रधानमंत्री का चयन सुगमतापूर्वक किया गया जबकि दोनों बार उत्तराधिकारी घोषित नहीं था और न ही संवैधानिक व्यवस्था में कोई निर्देश था कि ऐसी स्थिति में क्या किया जाना चाहिए। | ||
1967 के गणतंत्र दिवस पर डॉक्टर राधाकृष्णन ने देश को संबोधित करते हुए यह स्पष्ट किया था कि वह अब किसी भी सत्र के लिए राष्ट्रपति नहीं बनना चाहेंगे। यद्यपि कांग्रेस के नेताओं ने उनसे काफी आग्रह किया कि वह अगले सत्र के लिए भी राष्ट्रपति पद का दायित्व ग्रहण करें, लेकिन राधाकृष्णन ने अपनी घोषणा पर तरह से अमल किया। | 1967 के गणतंत्र दिवस पर डॉक्टर राधाकृष्णन ने देश को संबोधित करते हुए यह स्पष्ट किया था कि वह अब किसी भी सत्र के लिए राष्ट्रपति नहीं बनना चाहेंगे। यद्यपि कांग्रेस के नेताओं ने उनसे काफी आग्रह किया कि वह अगले सत्र के लिए भी राष्ट्रपति पद का दायित्व ग्रहण करें, लेकिन राधाकृष्णन ने अपनी घोषणा पर पूरी तरह से अमल किया। | ||
डॉक्टर राधाकृष्णन राष्ट्रपति के रूप में अपना कार्यकाल पूर्ण करने के बाद अपने गृहराज्य के शहर मद्रास चले गए। वहां उन्होंने पूर्ण अवकाशकालीन जीवन व्यतीत किया। 1968 में उन्हें भारतीय विद्या भवन द्वारा सर्वश्रेष्ठ सम्मान देते हुए | डॉक्टर राधाकृष्णन राष्ट्रपति के रूप में अपना कार्यकाल पूर्ण करने के बाद अपने गृहराज्य के शहर मद्रास चले गए। वहां उन्होंने पूर्ण अवकाशकालीन जीवन व्यतीत किया। 1968 में उन्हें भारतीय विद्या भवन द्वारा सर्वश्रेष्ठ सम्मान देते हुए साहित्य अकादमी की सदस्यता प्रदान की गई। | ||
डॉक्टर राधाकृष्णन ने एक साधारण भारतीय इंसान की तरह अपना जीवन गुजारा था। वह परम्परागत वेशभूषा में रहते थे। वह सफेद वस्त्र धारण करते थे और उस पर कोई दाग नहीं होता था। वह सिर पर दक्षिण भारतीय पगड़ी पहनते थे, जो भारतीय संस्कृति का प्रतीक बनकर सारे विश्व में जानी गई। राधाकृष्णन साधारण खाना खाते थे और जीवन पर्यन्त शाकाहारी रहे। उन्होंने एक बेहतरीन लेखक के रूप में 150 से अधिक रचनाएं लिखीं। | डॉक्टर राधाकृष्णन ने एक साधारण भारतीय इंसान की तरह अपना जीवन गुजारा था। वह परम्परागत वेशभूषा में रहते थे। वह सफेद वस्त्र धारण करते थे और उस पर कोई दाग नहीं होता था। वह सिर पर दक्षिण भारतीय पगड़ी पहनते थे, जो भारतीय संस्कृति का प्रतीक बनकर सारे विश्व में जानी गई। राधाकृष्णन साधारण खाना खाते थे और जीवन पर्यन्त शाकाहारी रहे। उन्होंने एक बेहतरीन लेखक के रूप में 150 से अधिक रचनाएं लिखीं। | ||
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डॉक्टर राधाकृष्णन के पुत्र डॉक्टर एस. गोपाल ने 1989 में उनकी जीवनी का प्रकाशन किया। इसके पूर्व डॉक्टर राधाकृष्णन के व्यक्तित्व तथा जीवन की घटनाओं के संबंध में किसी को भी अधिकाधिक जानकारी नहीं थी। और न ही उनके रिश्तों के बारे में कुछ मालूम था। इस कारण इनकी जीवनी लिखना आसान कार्य नहीं था। बाद में स्वयं उनके पुत्र ने भी माना कि उनके पिता की व्यक्तिगत जिन्दगी के विषय में लिखना एक बड़ी चुनौती थी और एक नाजुक मसला भी लेकिन डॉक्टर एस. गोपाल ने पिता के साथ अपने संबंधों को भी जीवन में रेखांकित किया। 1952 में न्यूयार्क में 'लाइब्रेरी ऑफ लिविंग फिलोसफर्स' के नाम से एक शृंखला दी गई जिसमें सर्वपल्ली राधाकृष्णन के बारे में अधिकाधिक रूप से लिखा गया था। स्वयं राधाकृष्णन ने उसमें दर्ज सामग्री का कभी खंडन नहीं किया। | डॉक्टर राधाकृष्णन के पुत्र डॉक्टर एस. गोपाल ने 1989 में उनकी जीवनी का प्रकाशन किया। इसके पूर्व डॉक्टर राधाकृष्णन के व्यक्तित्व तथा जीवन की घटनाओं के संबंध में किसी को भी अधिकाधिक जानकारी नहीं थी। और न ही उनके रिश्तों के बारे में कुछ मालूम था। इस कारण इनकी जीवनी लिखना आसान कार्य नहीं था। बाद में स्वयं उनके पुत्र ने भी माना कि उनके पिता की व्यक्तिगत जिन्दगी के विषय में लिखना एक बड़ी चुनौती थी और एक नाजुक मसला भी लेकिन डॉक्टर एस. गोपाल ने पिता के साथ अपने संबंधों को भी जीवन में रेखांकित किया। 1952 में न्यूयार्क में 'लाइब्रेरी ऑफ लिविंग फिलोसफर्स' के नाम से एक शृंखला दी गई जिसमें सर्वपल्ली राधाकृष्णन के बारे में अधिकाधिक रूप से लिखा गया था। स्वयं राधाकृष्णन ने उसमें दर्ज सामग्री का कभी खंडन नहीं किया। | ||
हमारे देश में डॉक्टर राधाकृष्णन के जन्मदिन 5 सितम्बर को प्रतिवर्ष 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाया जाता है। इस दिन समस्त देश में भारत सरकार द्वारा श्रेष्ठ शिक्षकों को पुरस्कार प्रदान किया जाता है। डॉक्टर राधाकृष्णन गैर राजनीतिक व्यक्ति होते हुए भी देश के राष्ट्रपति बने। इससे यह साबित होता है कि यदि व्यक्ति अपने ही क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ कार्य करे तो भी दूसरे क्षेत्र उसकी प्रतिभा से अप्रभावित नहीं रहते। डॉक्टर राधाकृष्णन बहुआयामी प्रतिभा के धनी होने के साथ ही देश की संस्कृति को प्यार करने वाले व्यक्ति थे। उन्हें एक बेहतरीन शिक्षक, दार्शनिक, देशभक्त और निष्पक्ष एवं कुशल राष्ट्रपति के रूप में यह देश सदैव याद रखेगा। | हमारे देश में डॉक्टर राधाकृष्णन के जन्मदिन 5 सितम्बर को प्रतिवर्ष '''शिक्षक दिवस''' के रूप में मनाया जाता है। इस दिन समस्त देश में भारत सरकार द्वारा श्रेष्ठ शिक्षकों को पुरस्कार प्रदान किया जाता है। डॉक्टर राधाकृष्णन गैर राजनीतिक व्यक्ति होते हुए भी देश के राष्ट्रपति बने। इससे यह साबित होता है कि यदि व्यक्ति अपने ही क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ कार्य करे तो भी दूसरे क्षेत्र उसकी प्रतिभा से अप्रभावित नहीं रहते। डॉक्टर राधाकृष्णन बहुआयामी प्रतिभा के धनी होने के साथ ही देश की संस्कृति को प्यार करने वाले व्यक्ति थे। उन्हें एक बेहतरीन शिक्षक, दार्शनिक, देशभक्त और निष्पक्ष एवं कुशल राष्ट्रपति के रूप में यह देश सदैव याद रखेगा। |
Revision as of 15:33, 6 February 2023
डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन स्वतंत्र भारत के दूसरे राष्ट्रपति बने थे। इन्होंने डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद की गौरवशाली परम्परा को आगे बढ़ाया। इनका कार्यकाल 13 मई, 1962 से 13 मई, 1967 तक रहा। इनका नाम भारत के महान राष्ट्रपतियों की प्रथम पंक्ति में सम्मिलित है। इनके व्यक्तित्व और कृतित्व के लिए सम्पूर्ण राष्ट्र इनका सदैव ऋणी रहेगा।
जन्म एवं परिवार
डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म तमिलनाडु के तिरूतनी ग्राम में, जो मद्रास (अब चेन्नई) से लगभग 64 कि.मी. की दूरी पर स्थित है, 5 सितम्बर, 1888 को हुआ था । यह एक ब्राह्मण परिवार से संबंधित थे। इनका जन्म स्थान एक पवित्र तीर्थस्थल के रूप में विख्यात रहा है। वैसे डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन का मानना था कि उनका जन्म 20 सितम्बर, 1887 को हुआ था। लेकिन सरकारी कागजातों में अंकित उनकी जन्मतिथि को ही अधिकारिक जन्मतिथि माना जाता है ।
डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के पुरखे पहले ‘सर्वपल्ली' नामक ग्राम में रहते थे और 18वीं शताब्दी के मध्य में उन्होंने तिरूतनी ग्राम की ओर निष्क्रमण किया था। लेकिन इनके पुरखे चाहते थे कि उनके नाम के साथ उनके जन्मस्थल के ग्राम का बोध भी सदैव रहना चाहिए। इसी कारण इनके परिजन अपने नाम से पूर्व 'सर्वपल्ली' धारण करने लगे थे ।
डॉक्टर राधाकृष्णन एक गरीब किन्तु विद्वान ब्राह्मण की दूसरी संतान के रूप में पैदा हुए। इनके पिता का नाम सर्वपल्ली वीरास्वामी और माता का नाम सीताम्मा था। इनके पिता राजस्व विभाग में वैकल्पिक कार्यालय में काम करते थे। इन पर बड़े परिवार के भरण-पोषण का दायित्व था। इनके पांच पुत्र तथा एक पुत्री थी। राधाकृष्णन का स्थान इन संततियों में दूसरा था। इनके पिता काफी कठिनाई के साथ परिवार का निर्वाहन कर रहे थे। इस कारण बालक राधाकृष्णन को बचपन में कोई विशेष सुख नहीं प्राप्त हुआ ।
विद्यार्थी जीवन
डॉक्टर राधाकृष्णन का बचपन तिरूतनी एवं तिरूपति जैसे धार्मिक स्थलों पर ही व्यतीत हुआ। इन्होंने प्रथम आठ वर्ष तिरूतनी में ही गुजारे । यद्यपि इनके पिता पुराने विचारों के इंसान थे और उनमें धार्मिक भावनाएं भी थीं, इसके बावजूद उन्होंने सर्वपल्ली राधाकृष्णन को क्रिश्चियन मिशनरी संस्था लुथर्न मिशन स्कूल, तिरूपति में 1896-1900 के मध्य विद्याध्ययन के लिए भेजा। फिर अगले 4 वर्ष (1900 से 1904) की शिक्षा वेल्लूर में हुई। इसके बाद इन्होंने मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज, मद्रास में शिक्षा प्राप्त की ।
इन 12 वर्षों के अध्ययन काल में डॉक्टर राधाकृष्णन ने बाइबिल के महत्वपूर्ण अंश भी याद कर लिए। इसके लिए इन्हें विशिष्ट योग्यता का सम्मान प्रदान किया गया। इस उम्र में इन्होंने वीर सावरकर और स्वामी विवेकानंद का भी अध्ययन किया। इन्होंने 1902 में मैट्रिक स्तर की परीक्षा उत्तीर्ण की और इन्हें छात्रवृत्ति भी प्राप्त हुई। इसके बाद इन्होंने 1904 में कला संकाय परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इन्हें मनोविज्ञान, इतिहास और गणित विषय में विशेष योग्यता की टिप्पणी भी उच्च प्राप्तांकों के कारण मिली। इसके अलावा क्रिश्चियन कॉलेज, मद्रास में इन्हें छात्रवृत्ति भी दी।
दाम्पत्य जीवन
उस समय मद्रास के ब्राह्मण परिवारों में भी कम उम्र में शादी सम्पन्न हो जाती थी और राधाकृष्णन भी इसके अपवाद नहीं रहे। 1903 में 16 वर्ष की आयु में ही इनका विवाह दूर के रिश्ते में सिवाकामू के साथ सम्पन्न हो गया। उस समय इनकी पत्नी ने इनके साथ रहना आरंभ किया। यद्यपि इनकी पत्नी सिवाकाम ने परम्परागत रूप से शिक्षा प्राप्त नहीं की थी, लेकिन उन्हें तेलुगु भाषा पर अच्छा अधिकार था। वह अंग्रेजी भाषा भी पढ़-लिख सकती थीं ।
1908 में राधाकृष्णन दम्पति को प्रथम संतान के रूप में पुत्री की प्राप्ति हुई। 1908 में ही इन्होंने कला स्नातक की उपाधि प्रथम श्रेणी में प्राप्त की और दर्शन शास्त्र में विशिष्ट योग्यता अंक प्राप्त किया। शादी के 6 वर्ष बाद 1909 में इन्होंने कला में स्नातकोत्तर परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली। इनका विषय दर्शन शास्त्र ही रहा । उच्च अध्ययन के दौरान वह अपनी निजी आमदनी के लिए बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने का कार्य भी करते रहे। 1908 में ही इन्होंने एम. ए. की उपाधि प्राप्त करने के लिए एक शोध लेखन किया। इस शोध का विषय था—‘वेदों की नीति समता' जो 1908 में प्रकाशित हुआ । इस इनकी आयु मात्र 20 वर्ष थी। इससे शास्त्रों के प्रति इनकी ज्ञान-पिपासा बढ़ी। शीघ्र ही इन्होंने वेदों और उपनिषदों का भी गहन अध्ययन कर लिया । इन्होंने हिन्दी और संस्कृत भाषा का भी रुचिपूर्वक अध्ययन किया।
डॉक्टर राधाकृष्णन को बचपन से ही पुस्तकों से प्रेम था। इस कारण तभी स्पष्ट हो गया था कि यह बालक बड़ा होकर विद्वत्ता एवं महानता का वरण अवश्य करेगा। इनका स्वभाव संकोची था, अतः वह घर के सामाजिक समारोहों में उत्साह एवं उल्लास का अनुभव नहीं करते थे। यह इनके परिवार के गहरे संस्कारों का ही प्रभाव रहा कि यह जीवन भर शाकाहारी रहे। इन्होंने कभी भी धूम्रपान अथवा मद्यपान नहीं किया।
परिवार में प्रथम पुत्री पैदा होने के बाद अगले पन्द्रह वर्षों में राधाकृष्णन दम्पति को छह अन्य संतानें भी हुईं। इस दौरान इनकी पत्नी का जीवन परिवार तथा पति के लिए पूर्णतया समर्पित रहा। लेकिन 26 नवम्बर, 1956 को इनकी पत्नी का देहांत हो गया। इस प्रकार 53 वर्ष साथ निभाने वाली जीवन-संगिनी का इन्हें विछोह भी सहन करना पड़ा। पत्नी की अंतिम क्रिया सम्पन्न करने के बाद जब वह लौटे तो उन्होंने एक टिप्पणी की- "एक लम्बे अध्याय का अंत हो गया।" जीवन के नाजुक रिश्तों को भी उन्होंने दर्शन शास्त्र की परिभाषाओं के अनुसार अनुभूत किया था।
भारतीय संस्कृति का अध्ययन
शिक्षा का प्रभाव जहां प्रत्येक इंसान पर निश्चित रूप से पड़ता है, वहीं शैक्षिक संस्थान की गुणवत्ता भी अपना प्रभाव छोड़ती है। क्रिश्चियन संस्थाओं द्वारा उस समय पश्चिमी जीवन मूल्यों को विद्यार्थियों में गहरे तक स्थापित किया जाता था । यही कारण है कि क्रिश्चियन संस्थानों में अध्ययन करते हुए राधाकृष्णन के जीवन में उच्च अनुशासन, कर्तव्य, समय की पाबंदी, गंभीरता तथा पूर्ण संयम में विशिष्ट गुण समाहित हो गए। लेकिन उनमें एक अन्य परिवर्तन भी आया जो क्रिश्चियन संस्थाओं के कारण ही था। कुछ लोग हिन्दुत्ववादी विचारों को हेय दृष्टि से देखते थे और उनकी आलोचना करते थे। उनकी आलोचनाओं को डॉ. राधाकृष्णन ने चुनौती की तरह लिया और हिन्दूवादिता का गहन अध्ययन करना आरंभ कर दिया।
डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन यह जानना चाहते थे कि वस्तुतः किस संस्कृति के विचारों में चेतनता है और किस संस्कृति के विचारों में जड़ता है। तब स्वाभाविक अंतर्प्रज्ञा द्वारा इस बात पर दृढ़ता से विश्वास करना आरंभ कर दिया कि भारत के दूरस्थ स्थानों पर रहने वाले गरीब तथा अनपढ़ व्यक्ति भी प्राचीन सत्य को जानते थे। इस कारण राधाकृष्णन ने तुलनात्मक रूप से यह जान लिया की आलोचनाएं निराधार हैं। उन्होंने स्वामी विवेकानंद और अन्य महापुरुषों के विचारों का भी अध्ययन किया। इससे इन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि भारतीय संस्कृति, धर्म, ज्ञान और सत्य पर आधारित है जो प्राणी को जीवन का सच्चा संदेश देती है।
डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने यह जान लिया था कि जीवन छोटा है और इसमें व्याप्त खुशियां अनिश्चित हैं। इस कारण व्यक्ति को सुख-दुख में समभाव से रहना चाहिए। वस्तुतः मृत्यु एक अटल सच्चाई है जो अमीर और गरीब सभी को अपना ग्रास बनाती है तथा किसी भी प्रकार का वर्ग विभेद नहीं करती। सच्चा ज्ञान वही है जो आपके अंदर के अज्ञान को समाप्त कर सकता है। सादगीपूर्ण संतोषवृत्ति का जीवन अमीरों के अहंकारी जीवन से बेहतर है जिनमें असंतोष का निवास है। एक शांत मस्तिष्क बेहतर है तालियों की उन गड़गड़ाहटों से जो संसदों एवं राज दरबारों में सुनाई देती हैं।
इस कारण डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय संस्कृति के नैतिक मूल्यों को समझ पाने में सफल रहे, क्योंकि वह मिशनरियों द्वारा की गई आलोचनाओं के सत्य को स्वयं परखना चाहते थे। इसीलिए कहा गया है कि आलोचनाएं परिशुद्धि का कार्य करती हैं। सभी माताएं अपने बच्चों में उच्च संस्कार देखना चाहती हैं। इस कारण वे बच्चों को ईश्वर पर विश्वास रखने, पाप से दूर रहने एवं मुसीबत में फंसे लोगों की मदद करने का पाठ पढ़ाती हैं। डॉक्टर राधाकृष्णन ने यह भी जाना कि भारतीय संस्कृति में सभी धर्मों का आदर करना सिखाया गया है और सभी धर्मों के लिए समता का भाव भी हिन्दू संस्कृति की विशिष्ट पहचान है। इस प्रकार उन्होंने भारतीय संस्कृति की विशिष्ट पहचान को समझा और उसके काफी नजदीक हो गए।
व्यावसायिक जीवन
21 वर्ष की उम्र 1909 में राधाकृष्णन ने मद्रास प्रेसिडेंसी कॉलेज में कनिष्ठ व्याख्याता के तौर पर दर्शन शास्त्र पढ़ाना आरंभ किया। यह उनका परम सौभाग्य था कि उनको अपनी प्रकृति के अनुकूल आजीविका प्राप्त हुई थी। यहां उन्होंने 7 वर्षों तक न केवल अध्यापन कार्य किया बल्कि स्वयं भी भारतीय दर्शन और भारतीय धर्म का गहराई से अध्ययन किया। उन दिनों व्याख्याता के लिए यह आवश्यक था कि अध्यापन हेतु वह शिक्षण का प्रशिक्षण भी प्राप्त करे। इस कारण 1910 में राधाकृष्णन ने शिक्षण का प्रशिक्षण मद्रास में लेना आरंभ कर दिया। इस समय इनका वेतन मात्र 37 रुपये था।
दर्शन शास्त्र विभाग के तत्कालीन प्रोफेसर राधाकृष्ण के दर्शन शास्त्रीय ज्ञान से काफी अभिभूत हुए। उन्होंने उन्हें दर्शन शास्त्र की कक्षाओं से अनुपस्थित रहने की अनुमति प्रदान कर दी। लेकिन इसके बदले में यह शर्त रखी कि वह उनके स्थान पर दर्शन शास्त्र की कक्षाओं में लेक्चर दें। तब राधाकृष्णन ने अपने कक्षा साथियों को तेरह ऐसे प्रभावशाली लेक्चर दिए, जिनसे वे शिक्षार्थी चकित रह गए। इनकी विषय पर गहरी पकड़ थी, दर्शन शास्त्र के संबंध में इनका दृष्टिकोण स्पष्ट था और इन्होंने उपयुक्त शब्दों का चयन भी किया था। 1912 में डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन की 'मनोविज्ञान के आवश्यक तत्व' शीर्षक से एक पुस्तक प्रकाशित हुई जो कक्षा में दिए गए इनके लेक्चरों का संग्रह था। इस पुस्तक द्वारा इनकी यह योग्यता प्रमाणित हुई कि प्रत्येक पद की व्याख्या करने के लिए इनके पास शब्दों का अतुल भण्डार था और इनकी स्मरण शक्ति भी अत्यंत विलक्षण थी ।
महात्मा गांधी से प्रथम भेंट
राधाकृष्णन की महात्मा गांधी से प्रथम भेंट 1915 में हुई थी। उनके विचारों से प्रभावित होकर राधाकृष्णन ने राष्ट्रीय आंदोलन के समर्थन में कई लेख भी लिखे। वह कभी भी किसी पार्टी से नहीं जुड़े, लेकिन निर्भय होकर राष्ट्रप्रेम अभिव्यक्त करते थे। बाद में इन्होंने गांधीजी को अभिव्यक्त करते हुए कहा था- "मनुष्य के सर्वोत्तम प्रयासों में गांधीजी की आवाज सदैव अनश्वर रहेगी और संसार के सभी मानवों में श्रेष्ठतम भी होगी।" यहां आवाज का आशय गांधीजी की समग्र सोच से किया गया था। यद्यपि राधाकृष्णन ब्रिटिश सरकार की नौकरी कर रहे थे, तथापि वह देश की स्वतंत्रता के लिए इच्छुक थे। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उन्होंने अंग्रेजों से यह आशा भी रखी कि वे देश को स्वतंत्र कर देंगे। वह अंग्रेजों से यह आश्वासन भी चाहते थे कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वे भारत को गुलामी से मुक्त कर देंगे।
1916 में डॉक्टर राधाकृष्णन का स्थानांतरण अनन्तपुर हो गया। यहां यह छह माह तक रहे। इसके बाद पुनः प्रेसिडेंसी कॉलेज में प्रोफेसर के रूप में लौटे। 1917 में वह दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर के रूप में 'कन्फर्म' किए गए और इनका स्थानांतरण राजामुंद्री में कर दिया। यहां इनके अध्यापन को काफी प्रसिद्धि प्राप्त हुई इन्होंने दर्शन शास्त्र जैसे बोझिल विषय को मनोरंजन का स्वरूप प्रदान कर अपने छात्रों को मित्र की तरह पढ़ाया। वह प्रत्येक छात्र को एक विशिष्ट उपनाम से पुकारते थे। राधाकृष्णन ने अपने शिक्षार्थियों की अधिकतम मदद की। यही कारण है कि शिक्षार्थी इनका हृदय से आदर करते थे। 1918 में वह न्यू मैसूर यूनिवर्सिटी में 'एडीशनल प्रोफेसर' की हैसियत से नियुक्त हुए और वहां 3 वर्षों (1921) तक अध्यापन कार्य किया
दर्शन शास्त्र के मर्मज्ञ के तौर पर डॉक्टर राधाकृष्णन की पहचान कायम हो चुकी थी। जुलाई, 1918 में मैसूर प्रवास के समय इनकी भेंट रवीन्द्रनाथ टैगोर से हुई। इस मुलाकात के बाद वह टैगोर से काफी अभिभूत हुए। उनके विचारों की अभिव्यक्ति हेतु डॉक्टर राधाकृष्णन ने 1918 में 'रवीन्द्रनाथ टैगोर का दर्शन' शीर्षक से एक पुस्तक लिखी जो मैकमिलन प्रकाशन गृह द्वारा प्रकाशित हुई। इसके बाद उन्होंने दूसरी पुस्तक 'द रीन ऑफ रिलीजन इन कटेंपोरेवी फिलॉस्फी' लिखी। इस पुस्तक ने इन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दी। इस पुस्तक को भारत के शिक्षार्थियों ने 'आत्मतत्व ज्ञान' की पुस्तक के रूप में स्वीकार किया। यही नहीं, इसे इंग्लैण्ड तथा अमेरिका के विश्वविद्यालयों में भी बेहद पसंद किया गया। एक बार मैसूर में इनके विद्यार्थियों ने इनसे पूछा था- क्या आप उच्च अध्ययन के लिए विदेश जाना पसंद करेंगे? तब इनका प्रेरक जवाब था- नहीं, लेकिन मैं वहां शिक्षा प्रदान करने के लिए अवश्य जाना चाहूंगा।
विद्यार्थियों के साथ संबंध
विद्यार्थियों के साथ राधाकृष्णन के संबंध मैत्रीपूर्ण रहते थे। जब वह अपने आवास पर शैक्षिक गतिविधियों का संचालन करते थे, तो घर पर आने वाले विद्यार्थियों का स्वागत हाथ मिलाकर करते थे। वह उन्हें पढ़ाई के दौरान स्वयं चाय देते थे और सभी की भाँति इन्हें घर के द्वार तक छोड़ने भी जाते राधाकृष्णन में प्रोफेसर होने का रंचमात्र भी अहंकार नहीं था। जब गुरु और शिष्य के मध्य संकोच की दूरी न हो तो अध्यापन कार्य अधिक श्रेष्ठापूर्वक किया जा सकता है।
डॉक्टर राधाकृष्णन के ऐसे मैत्री संबंधों के कारण एक मिसाल भी कायम हुई, जो बहुत अनोखी थी। दरअसल जब उनको कलकत्ता में स्थानांतरित होना था, तब विदाई का कोई भी कार्यक्रम आयोजित नहीं किया गया। इसके लिए उन्होंने मना कर दिया। इनके विद्यार्थियों ने बग्घी के द्वारा इन्हें स्टेशन तक पहुंचाया था। उस बग्घी में घोड़े नहीं जुते थे, बल्कि विद्यार्थियों द्वारा ही उस बग्घी को खींचकर रेलवे स्टेशन तक ले जाया गया। उनकी विदाई के समय मैसूर स्टेशन का प्लेटफार्म 'सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जय हो' के नारों से गूंज उठा था। वहां मौजूद लोगों की आंखों में अश्रु थे। राधाकृष्णन भी उस अद्भुत प्रेम के वशीभूत होकर अपने आंसू नहीं रोक पाए थे। गुरु एवं विद्यार्थियों का ऐसा संबंध वर्तमान युग में कम ही देखने को प्राप्त होता है।
इसके बाद डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कोलकाता में 1921 से 1931 तक का समय व्यतीत किया। इन्हें कोलकाता के किंग जॉर्ज पंचम विश्वविद्यालय में मानसिक एवं नैतिक दर्शन शास्त्र का प्रोफेसर नियुक्त किया गया। इस दौरान इन्होंने भारत की शैक्षिक सेवा में अभिवृद्धि करने का भी कार्य किया। यहां वह गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के सम्पर्क में भी रहे। टैगोर के विचारों का काफी प्रभाव राधाकृष्णन पर पड़ा। कोलकाता विश्वविद्यालय के सभी संगठनों और विभागों को उन्नत करने के लिए इन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। यूरोप के विद्वान भी इनके दर्शन शास्त्रीय विचारों से काफी प्रभावित हुए। इनके विचारों में विषय की स्पष्टता होती थी। यह सम्बोधन में क्लिष्टता का समावेश नहीं करते थे। इनकी भाषा में विद्यार्जित विद्वत्ता का ऐसा चमत्कार होता था कि श्रोता मंत्रमुग्ध होकर सुनता रह जाता था ।
आलोचना
लेकिन वर्तमान युग में आलोचना तो संसार के रचयिता की भी होती है। इस कारण डॉक्टर राधाकृष्णन ने भी आोचनाओं का सामना करना पड़ा। इनके आलोचकों का कहना था कि राधाकृष्णनने दर्शन शास्त्र को नया कुछ भी नहीं दिया है, भारत के आध्यात्मिक दर्शन की प्राचीनता को ही उजागर किया है। पश्चिम के सम्मुख उन्होंने भारतीय अध्यात्म को मात्र अंग्रेजी भाषा में उद्धृत करने का ही कार्य किया है। लेकिन राधाकृष्णन ने अपने आलोचकों को कभी भी कोई स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता महसूस नहीं की।
इनका एक लेख 'एनसायक्लोपीडिया ब्रिटानिया' के 14वें संस्करण में प्रकाशित हुआ जो एक बड़ी उपलब्धि थी। अपने दर्शन शास्त्रीय विचारों के प्रकाशक द्वारा सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने पश्चिम का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया । इन्हें 1922 में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय द्वारा 'दि हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ' विषय पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया। इन्होंने लंदन में ब्रिटिश एम्पायर के अंतर्गत आने वाली यूनिवर्सिटियों के सम्मेलन में कोलकाता यूनिवर्सिटी का प्रतिनिधित्व भी किया। 1926 में राधाकृष्णन ने यूरोप और अमेरिका की यात्राएं भी कीं। इनका सभी स्थानों पर शानदार स्वागत हुआ। इन्हें ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज, हार्वर्ड, प्रिंसटन और शिकागो विश्वविद्यालयों द्वारा सम्मानित भी किया गया।
डॉ. राधाकृष्णन को यूरोप एवं अमेरिका के प्रवास के प्रत्येक क्षणों की स्मृति थीं, इंग्लैण्ड के समाचार पत्रों ने इनके वक्तव्यों की आदर के साथ प्रशंसा की। उनकी टिप्पणियों से प्रकट होता था कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन एक ऐसी प्रतिभा है जो न केवल भारत के दर्शन शास्त्र की व्याख्या कर सकता है बल्कि पश्चिम का दर्शन शास्त्र भी उनकी प्रतिभा के दायरे में आता है। एक शिक्षाविद् के रूप में उनको असीम प्रतिभा का धनी माना गया।
जब डॉक्टर राधाकृष्णन यूरोप एवं अमेरिका प्रवास से पुनः भारत लौटे तो यहां के विभिन्न विश्वविद्यालयों द्वारा उन्हें मानद उपाधियां प्रदान कर उनकी विद्वता का सम्मान किया गया। 1928 की शीत ऋतु में इनकी प्रथम मुलाकात पण्डित जवाहरलाल नेहरू से उस समय हुई, जब वह कांग्रेस पार्टी के वार्षिक अधिवेशन में सम्मिलित होने के लिए कोलकाता आए हुए थे । यद्यपि सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय शैक्षिक सेवा के सदस्य होने के कारण किसी भी राजनीतिक संभाषण में हिस्सेदारी नहीं कर सकते थे तथापि उन्होंने इस वर्जना की कोई परवाह नहीं की और भाषण दिया। 1929 में इन्हें व्याख्यान हेतु मेनचेस्टर विश्वविद्यालय द्वारा आमंत्रित किया गया। इन्होंने मेनचेस्टर एवं लंदन में कई व्याख्यान दिए। इनकी शिक्षा संबंधी उपलब्धियों के दायरे में निम्नवत संस्थानिक सेवा कार्यों को देखा जाता है :
संस्थानिक सेवा कार्य
- डॉक्टर राधाकृष्णन वाल्टेयर विश्वविद्यालय, आंध्र प्रदेश के 1931 से 1996 तक वाइस चांसलर रहे।
- ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के 1936 से 1952 तक प्रोफेसर रहे।
- कोलकाता विश्वविद्यालय के अंतर्गत आने वाले जॉर्ज पंचम कॉलेज के प्रोफेसर के रूप 1937 से 1941 तक कार्य किया।
- 1939 से 1948 तक बनारस के हिन्दू विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर रहे।
- 1953 से 1962 तक दिल्ली विश्वविद्यालय के चांसलर रहे।
- 1940 में प्रथम भारतीय के रूप में ब्रिटिश अकादमी में चुने गए।
- 1948 में यूनेस्को में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।
राजनीतिक जीवन
यह सर्वपल्ली राधाकृष्णन की ही प्रतिभा थी कि स्वतंत्रता के बाद इन्हें संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया। वह 1947 से 1949 तक इसके सदस्य रहे। इस समय यह संयुक्त विश्वविद्यालयों के चेयरमैन भी नियुक्त किए गए। अखिल भारतीय कांग्रेसजन यह चाहते थे कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन को गैर राजनीतिक व्यक्ति होते हुए भी संविधान सभा का सदस्य बनाया जाए। जवाहरलाल नेहरू चाहते थे कि राधाकृष्णन के संभाषण एवं वक्तृत्व प्रतिभा का उपयोग 14-15 अगस्त, 1947 की रात्रि को किया जाए, जब संविधान सभा का ऐतिहासिक सत्र आयोजित हो। राधाकृष्णन को यह निर्देश दिया गया कि वह अपना सम्बोधन रात्रि के ठीक 12 बजे समाप्त करें। उसके पश्चात संवैधानिक संसद द्वारा शपथ ली जानी थी।
सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने ऐसा ही किया और रात्रि के ठीक 12 बजे अपने सम्बोधन को विराम दिया। पण्डित नेहरू और राधाकृष्णन के अलावा किसी अन्य को उनकी योजना की जानकारी नहीं थी। आजादी के बाद उनसे आग्रह किया गया कि वह मातृभूमि की सेवा के लिए विशिष्ट राजदूत के रूप में सोवियत संघ के साथ राजनयिक कार्यों की पूर्ति करें। इस प्रकार विजयलक्ष्मी पण्डित का इन्हें नया उत्तराधिकारी चुना गया। पण्डित नेहरू के इस चयन पर कई व्यक्तियों ने आश्चर्य व्यक्त किया कि एक दर्शन शास्त्री को राजनयिक सेवाओं के लिए क्यों चुना गया? उन्हें यह संदेह था कि डॉक्टर राधाकृष्णन की योग्यताएं सौंपी गई जिम्मेदारी के अनुकूल नहीं है लेकिन बाद में डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने यह साबित कर दिया कि मास्को में नियुक्त भारतीय राजनयिकों में वह बेहतरीन थे। वह एक गैर परम्परावादी राजनयिक थे। जो मंत्रणाएं देर रात्रि तक होती थीं, वह उनमें रात्रि 10 बजे तक ही भाग लेते थे, क्योंकि उसके बाद इनके शयन का समय हो जाता था। जब राधाकृष्णन एक शिक्षक थे, तब वह नियमों के दायरे में नहीं बंधे थे। कक्षा में 20 मिनट देरी से आते थे और दस मिनट पूर्व ही चले जाते थी । इनका कहना था कि कक्षा में इन्हें जो लेक्चर देना होता था, वह 20 मिनट के पर्याप्त समय में सम्पन्न हो जाता था। इसके उपरांत भी यह विद्यार्थियों के प्रिय एवं आदरणीय शिक्षक बने रहे।
स्टालिन से भेंट
डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन को स्टालिन से भेंट करने का दुर्लभ अवसर दो बार प्राप्त हुआ। 14 जनवरी, 1945 के दिन वह पहला अवसर आया, जब स्टालिन के निमंत्रण पर वह उनसे मिले। स्टालिन के हृदय में 'फिलास्फर राजदूत' के प्रति गहरा सम्मान था। इनकी दूसरी मुलाकात 5 अप्रैल, 1952 को हुई, जब भारतीय राजदूत सोवियत संघ से विदा होने वाले थे। विदा होते समय राधाकृष्णन ने स्टालिन के सिर और पीठ पर हाथ रखा। तब स्टालिन ने कहा था - 'तुम पहले व्यक्ति हो, जिसने मेरे साथ एक इंसान के रूप में व्यवहार किया है और मुझे अमानव अथवा दैत्य नहीं समझा है। तुम्हारे जाने से मैं दुख अनुभव कर रहा हूँ। मैं चाहता हूं कि तुम दीर्घायु हो। मैं ज्यादा नहीं जीना चाहता हूँ।" इस समय स्टालिन की आंखों में नमी थी। फिर छह माह बाद ही स्टालिन की मृत्यु हो गई।
उपराष्ट्रपति के रूप में
1952 में सोवियत संघ से आने के बाद डॉक्टर राधाकृष्णन उपराष्ट्रपति निर्वाचित किए गए। संविधान के अंतर्गत उपराष्ट्रपति का नया पद सृजित किया गया था। नेहरू जी ने इस पद हेतु राधाकृष्णन का चयन करके पुनः लोगों को चौंका दिया। उपराष्ट्रपति के रूप में राधाकृष्णन ने राज्यसभा में चेयरमैन का पदभार भी संभाला। बाद में पण्डित नेहरू का यह चयन भी सार्थक साबित हुआ क्योंकि उपराष्ट्रपति के रूप में एक गैर राजनीतिज्ञ व्यक्ति ने सभी राजनीतिज्ञों को प्रभावित किया था। संसद के सभी सदस्यों ने उन्हें उनके कार्य व्यवहार के लिए काफी सराहा। इनकी सज्जनता, दृढ़ता और विनोदी स्वभाव को लोग आज भी याद करते हैं। सितम्बर, 1952 में इन्होंने यूरोप और मिडिल ईस्ट देशों की यात्रा की ताकि नए राष्ट्र हेतु मित्र राष्ट्रों का सहयोग मिल सके।
1956 में डॉक्टर राधाकृष्णन की पत्नी का निधन हो गया। तब एक पुत्र और पांच पुत्रियों का तमाम दायित्व इन पर आ गया। इन जिम्मेदारियों को निभाते हुए 1957 में यह दूसरी बार भी उपराष्ट्रपति निर्वाचित हुए। इस कार्यकाल के दौरान राधाकृष्णन ने चीन, मंगोलिया, हांगकांग और इंग्लैण्ड की यात्राएं कीं। 1961 में इन्हें जर्मनी के पुस्तक प्रकाशन द्वारा दिया जाने वाला 'विश्व शांति पुरस्कार' भी प्राप्त हुआ। इस दौरान इन्होंने राज्यसभा का संचालन काफी कुशलता के साथ किया। तब पण्डित पंत को कहना पड़ा - "राज्यसभा इनके हाथों का खिलौना मात्र है।"
राष्ट्रपति पद पर
एक बार विख्यात दार्शनिक प्लेटो ने कहा था- "राजाओं को दार्शनिक होना चाहिए और दार्शनिकों को राजा।" प्लेटो के इस कथन को 1962 में डॉक्टर राधाकृष्णन ने तब सच कर दिखाया, जब यह भारत के दूसरे राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। इस प्रकार एक दार्शनिक ने राजा की हैसियत प्राप्त की। 13 मई, 1962 को 31 तोपों की सलामी के साथ इनकी राष्ट्रपति पद पर ताजपोशी हुई। इस संदर्भ में भारत सरकार द्वारा गजट में एक अधिसूचना प्रकाशित हुई, जो विशिष्ट भाग द्वितीय, वर्ग 3 उपवर्ग द्वितीय दिनांक 17 मई, 1962 की एस. ओ. संख्या 1858 के अंतर्गत थी।
बर्ट्रेड रसेल जो विश्व के जाने-माने दार्शनिक थे, वह राधाकृष्णन के राष्ट्रपति बनने पर अपनी प्रतिक्रिया को नहीं रोक पाए। उन्होंने कहा था-
"यह विश्व के दर्शन शास्त्र का सम्मान है कि महान भारतीय गणराज्य ने डॉक्टर राधाकृष्णन को राष्ट्रपति के रूप में चुना और एक दार्शनिक को राजा होना चाहिए और महान भारतीय गणराज्य ने एक दार्शनिक को राष्ट्रपति बनाकर प्लेटो को सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित की है।"
1962 में ग्रीस के राजा ने जब भारत का राजनयिक दौरा किया तो डॉक्टर राधाकृष्णन ने उनका स्वागत करते हुए कहा था- "महाराज! आप ग्रीस के पहले राजा हैं जो भारत में अतिथि की तरह आए हैं। अलेक्जेण्डर यहां अनियंत्रित मेहमान बनकर आए थे।" (अलेक्जेण्डर ने भारत पर आक्रमण किया था और वह हमलावर की हैसियत से आया था।)
राष्ट्रपति बनने के बाद राधाकृष्णन ने भी पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद की भांति स्वैच्छिक आधार पर राष्ट्रपति के वेतन से कटौती कराई थी। उन्होंने घोषणा की कि सप्ताह में दो दिन कोई भी व्यक्ति उनसे बिना पूर्व अनुमति लिए मिल सकता है। इस प्रकार राष्ट्रपति भवन को उन्होंनें सर्वहारा वर्ग के लिए खोल दिया । राष्ट्रपति बनने के बाद वह ईरान, अफगानिस्तान, इंग्लैण्ड, अमेरिका, नेपाल, यूगोस्लाविया, चेकोस्लोवाकिया, रूमानिया तथा आयरलैंड भी गए। वह अमेरिका के राष्ट्रपति भवन 'व्हाइट हाउस' में हेलीकॉप्टर से अतिथि के रूप में पहुंचे थे। इससे पूर्व विश्व का कोई भी व्यक्ति व्हाइट हाउस में हेलीकॉप्टर द्वारा नहीं पहुंचा था।
भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद की तुलना में राधाकृष्णन का कार्यकाल काफी कठिनाइयों से भरा था। इनके कार्यकाल में जहां चीन और पाकिस्तान से युद्ध हुए, वहीं दो प्रधानमंत्रियों की पद पर रहते हुए मृत्यु भी हुई। 1962 में जब चीन ने भारत पर आक्रमण किया था तो भारत की अपमानजनक पराजय हुई थी। उस समय वी.के. कृष्णामेनन भारत के रक्षा मंत्री थे। तब पण्डित नेहरू को डॉक्टर राधाकृष्णन ने ही मजबूर किया था कि कृष्णामेनन से इस्तीफा तलब करें, जबकि नेहरू जी ऐसा नहीं चाहते थे ।
चीन के युद्ध में पराजित होने के बाद डॉक्टर राधाकृष्णन ने पण्डित नेहरू की भी आलोचना की थी। बेशक वह पण्डित नेहरू के काफी निकट थे, लेकिन उन्होंने आलोचना के स्थान पर आलोचना की और मार्गदर्शन की आवश्यकता होने पर मार्गदर्शन भी किया। यह राधाकृष्णन ही थे, जिन्होंने पण्डित नेहरू को मजबूर किया कि वह लालबहादुर शास्त्री को केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में स्थान प्रदान करें। उस समय कामराज योजना के अंतर्गन शास्त्री जी बिना विभाग के मंत्री थे। पण्डित नेहरू के गम्भीर रूप से बीमार होने के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय शास्त्रीजी के परामर्श से ही चलता था। डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कार्यालय में ही पण्डित नेहरू और शास्त्रीजी की प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए मृत्यु हुई थी। लेकिन दोनों बार नए प्रधानमंत्री का चयन सुगमतापूर्वक किया गया जबकि दोनों बार उत्तराधिकारी घोषित नहीं था और न ही संवैधानिक व्यवस्था में कोई निर्देश था कि ऐसी स्थिति में क्या किया जाना चाहिए।
1967 के गणतंत्र दिवस पर डॉक्टर राधाकृष्णन ने देश को संबोधित करते हुए यह स्पष्ट किया था कि वह अब किसी भी सत्र के लिए राष्ट्रपति नहीं बनना चाहेंगे। यद्यपि कांग्रेस के नेताओं ने उनसे काफी आग्रह किया कि वह अगले सत्र के लिए भी राष्ट्रपति पद का दायित्व ग्रहण करें, लेकिन राधाकृष्णन ने अपनी घोषणा पर पूरी तरह से अमल किया।
डॉक्टर राधाकृष्णन राष्ट्रपति के रूप में अपना कार्यकाल पूर्ण करने के बाद अपने गृहराज्य के शहर मद्रास चले गए। वहां उन्होंने पूर्ण अवकाशकालीन जीवन व्यतीत किया। 1968 में उन्हें भारतीय विद्या भवन द्वारा सर्वश्रेष्ठ सम्मान देते हुए साहित्य अकादमी की सदस्यता प्रदान की गई।
डॉक्टर राधाकृष्णन ने एक साधारण भारतीय इंसान की तरह अपना जीवन गुजारा था। वह परम्परागत वेशभूषा में रहते थे। वह सफेद वस्त्र धारण करते थे और उस पर कोई दाग नहीं होता था। वह सिर पर दक्षिण भारतीय पगड़ी पहनते थे, जो भारतीय संस्कृति का प्रतीक बनकर सारे विश्व में जानी गई। राधाकृष्णन साधारण खाना खाते थे और जीवन पर्यन्त शाकाहारी रहे। उन्होंने एक बेहतरीन लेखक के रूप में 150 से अधिक रचनाएं लिखीं।
मार्च, 1975 में डॉक्टर राधाकृष्णन को टेम्पलटन पुरस्कार से सम्मानित किया गया, जो धर्म के क्षेत्र में उत्थान हेतु प्रदान किया जाता है। इस पुरस्कार को ग्रहण करने वाले यह प्रथम गैर-ईसाई सम्प्रदाय के व्यक्ति थे। लंबी बीमारी के बाद 17 अप्रैल, 1975 को प्रातःकाल उन्होंने अंतिम सांस ली। वह अपने समय के एक महान दार्शनिक थे।
डॉक्टर राधाकृष्णन के पुत्र डॉक्टर एस. गोपाल ने 1989 में उनकी जीवनी का प्रकाशन किया। इसके पूर्व डॉक्टर राधाकृष्णन के व्यक्तित्व तथा जीवन की घटनाओं के संबंध में किसी को भी अधिकाधिक जानकारी नहीं थी। और न ही उनके रिश्तों के बारे में कुछ मालूम था। इस कारण इनकी जीवनी लिखना आसान कार्य नहीं था। बाद में स्वयं उनके पुत्र ने भी माना कि उनके पिता की व्यक्तिगत जिन्दगी के विषय में लिखना एक बड़ी चुनौती थी और एक नाजुक मसला भी लेकिन डॉक्टर एस. गोपाल ने पिता के साथ अपने संबंधों को भी जीवन में रेखांकित किया। 1952 में न्यूयार्क में 'लाइब्रेरी ऑफ लिविंग फिलोसफर्स' के नाम से एक शृंखला दी गई जिसमें सर्वपल्ली राधाकृष्णन के बारे में अधिकाधिक रूप से लिखा गया था। स्वयं राधाकृष्णन ने उसमें दर्ज सामग्री का कभी खंडन नहीं किया।
हमारे देश में डॉक्टर राधाकृष्णन के जन्मदिन 5 सितम्बर को प्रतिवर्ष शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिन समस्त देश में भारत सरकार द्वारा श्रेष्ठ शिक्षकों को पुरस्कार प्रदान किया जाता है। डॉक्टर राधाकृष्णन गैर राजनीतिक व्यक्ति होते हुए भी देश के राष्ट्रपति बने। इससे यह साबित होता है कि यदि व्यक्ति अपने ही क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ कार्य करे तो भी दूसरे क्षेत्र उसकी प्रतिभा से अप्रभावित नहीं रहते। डॉक्टर राधाकृष्णन बहुआयामी प्रतिभा के धनी होने के साथ ही देश की संस्कृति को प्यार करने वाले व्यक्ति थे। उन्हें एक बेहतरीन शिक्षक, दार्शनिक, देशभक्त और निष्पक्ष एवं कुशल राष्ट्रपति के रूप में यह देश सदैव याद रखेगा।