मगध का उत्कर्ष: Difference between revisions

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==मगध का आरंभिक इतिहास==
==मगध का आरंभिक इतिहास==
मगध का उल्लेख पहली बार अथर्ववेद में मिलता है। मगध के प्राचीन इतिहास की रूपरेखा बौद्ध ग्रंथों, महाभारत तथा पुराणों में मिलती है। पुराणों के अनुसार मगध का सबसे प्राचीनतम् राजवंश बृहद्रथ वंश था ।
महाभारत तथा पुराणों के अनुसार जरासंध के पिता तथा चेदिराज वसु के पुत्र बृहदथ ने स्थापना की थी। भगवान् बुद्ध के पूर्व बृहदथ तथा जरासंध यहाँ के प्रतिष्ठित शासक थे। जरासंध ने काशी, बृहद्रथ वंश की कोशल, चेदि, मालवा, विदेह, अंग, वंग, कलिंग, कश्मीर और गांधार के राजाओं को पराजित किया। इसके बाद यहाँ प्रद्योत वंश का शासन स्थापित हुआ, जिसका अंत करके शिशुनाग ने अपने वंश की स्थापना की। शैशुनाग वंश के बाद नंद वंश ने शासन किया।
बौद्ध ग्रंथ शैशुनाग वंश का कोई उल्लेख नहीं करते और प्रद्योत तथा उसके वंश को अवंति से संबंधित करते हैं। इन ग्रंथों के अनुसार बिंबिसार तथा उसके उत्तराधिकारी शिशुनाग के पूर्वगामी थे और अंत में नंदों ने शासन किया था। इस प्रकार बौद्ध ग्रंथों का क्रम ही अधिक तर्कसंगत लगता है जिसके अनुसार मगध का प्रथम शासक बिंबिसार था, जो हर्यक वंश का था। शिशुनाग वंश ने हर्यक वंश के बाद शासन किया था।
===हर्यक वंश===
मगध साम्राज्य की स्थापना का श्रेय बिंबिसार को है, किंतु बिंबिसार का संबंध किस कुल से था, स्पष्ट नहीं है। विभिन्न इतिहासकारों ने बिंबिसार को शैशुनाग, हर्यंक तथा नागकुल से संबंधित करने का प्रयास किया है। पुराणों में विवृत वंशावली के आधार पर स्मिथ आदि बिंबिसार को शैशुनाग वंश से संबंधित करते हैं। किंतु पुराणों के अन्य साक्ष्यों एवं बौद्ध ग्रंथों में प्राप्त उल्लेखों से यह स्थापना असत्य सिद्ध हो जाती है।
अश्वघोष के बुद्धचरित में बिंबिसार को हर्यंक कुल से संबंधित बताया गया है, किंतु भंडारकर बिंबिसार को नागकुल से संबंधित करते हैं। इनके अनुसार उस समय उत्तरी भारत में दो नागवंश थे। बिंबिसार आदि का संबंध बड़े नाग कुल से था, जिसका अंतिम शासक नागदास था। मगध के अधीनस्थ शासकों की नियुक्ति इसी नाग वंश से की जाती थी। शिशुनाग संभवतः इसी नाग वंश से संबंधित था। इस पितृघाती बड़े नाग वंश को समाप्त कर जब नागरिकों ने शिशुनाग को नियुक्त किया, तो इसे शिशुनाग वंश नाम दिया गया। भंडारकर के इस मत को माना जा सकता है कि बिंबिसार नागकुल से संबंधित था, किंतु उस समय दो नाग कुल साथ-साथ विद्यमान थे, इस मत से सहमत होना कठिन है।
भंडारकर की भाँति जसवन्त सिंह नेगी भी बिंबिसार को नागकुल से ही संबंधित करते हैं। प्रो. नेगी का सुझाव है कि अश्वघोष ने बिंबिसार को हर्यंक कुल का बताया है क्योंकि इस वंश के शासकों की मुद्राओं पर हरि अर्थात् नाग का चिन्ह उत्कीर्ण रहता था। इस प्रकार बिंबिसार को नाग कुल से संबंधित लगता है और हर्यंकवंश नाग वंश की ही कोई उपशाखा थी ।

Revision as of 10:23, 18 February 2023

मगध महाजनपद प्राचीनकाल से ही राजनीतिक उत्थान, पतन एवं सामाजिक-धार्मिक जागृति का केंद्र-बिंदु रहा है। छठीं शताब्दी ई.पू. के सोलह महाजनपदों में से एक मगध बुद्धकाल में शक्तिशाली व संगठित राजतंत्र था। इसकी राजधानी गिरिव्रज थी। इस राज्य का विस्तार उत्तर में गंगा, पश्चिम में सोन तथा दक्षिण में जगंलाच्छादित पठारी प्रदेश तक था। कालांतर में मगध का उत्तरोत्तर विकास होता गया और भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के विकास की दृष्टि से मगध का इतिहास ही संपूर्ण भारतवर्ष का इतिहास बन गया।

मगध के इतिहास की जानकारी के प्रमुख साधन के रूप में पुराण, सिंहली ग्रंथ दीपवंस, महावंस अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। इसके अलावा भगवतीसूत्र, सुत्तनिपात, चुल्लवग्ग, सुमंगलविलासिनी, जातक ग्रंथों से भी कुछ सूचनाएँ प्राप्त होती हैं।

मगध के उत्कर्ष के कारक

मगध साम्राज्यवाद का उदय और विस्तार प्राक्-मौर्यायुगीन भारतीय राजनीति की एक महत्त्वपूर्ण घटना है। बुद्धकाल में मगध अपने समकालीन सभी महाजनपदों को आत्मसात् कर तीव्रगति से उन्नति के पथ पर अग्रसर होता गया। मगध के इस उत्कर्ष के अनेक कारण थे ।

  1. भौगोलिक स्थिति : मगध के उत्थान में वहाँ की भौगोलिक स्थिति ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह राज्य उत्तरी भारत के विशाल तटवर्ती मैदानों के ऊपरी और निचले भाग के मध्य अति सुरक्षित था। पहाड़ों तथा नदियों ने तत्कालीन परिवेश में मगध की सुरक्षा-भित्ति का कार्य किया। गंगा, सोन, गंडक तथा घाघरा नदियों ने इसे सुरक्षा के साथ-साथ यातायात की सुविधा प्रदान किया। इसकी दोनों राजधानियाँ-राजगृह तथा पाटलिपुत्र सामरिक दृष्टिकोण से अत्यंत सुरक्षित भौगोलिक स्थिति में थीं । सात पहाड़ियाँ के बीच स्थित होने के कारण राजगृह तक शत्रुओं का पहुँचना दुष्कर था। चारों ओर से नदियों से घिरी होने के कारण पाटिलपुत्र भी सुरक्षित रही।
  2. प्राकृतिक संसाधन : प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से मगध अधिक समृद्ध और सौभाग्यशाली था। मगध के निकटवर्ती जंगलों में पर्याप्त मात्रा में हाथी पाये जाते थे जो सेना के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुए। मगध क्षेत्र में कच्चा लोहा तथा ताँबा जैसे खनिज पदार्थों की बहुलता थी। समीपवर्ती लोहे की खानों से भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्र बनाकर घने जंगलों को साफ कर कृषि योग्य भूमि का विस्तार हुआ तथा नये-नये उद्योग-धंधों को प्रोत्साहन मिला। लोहे का समृद्ध भंडार आसानी से उपलब्ध होने के कारण मगध के शासक अपने लिए अच्छे युद्धास्त्र तैयार करवाये जो उनके विरोधियों को सुलभ नहीं थे।
  3. आर्थिक संपन्नता : मगध की आर्थिक संपन्नता ने भी इसके उत्थान में सहायता पहुँचाई। मगध कोक्षेत्र अत्यंत उपजाऊ था। यहाँ वर्षा अधिक होती थी जिसके कारण कम परिश्रम में भी अधिक उपज होती थी। अतिरिक्त उत्पादन से व्यापार-वाणिज्य को प्रोत्साहन मिला तथा देश आर्थिक दृष्टि से संपन्न होता गया। सिक्कों के प्रचलन, नये उद्योगों की स्थापना और नगरों के विकास से राज्य की आर्थिक संपन्नता में वृद्धि होना स्वाभाविक था। गंगा और सोन नदियों के निकट होने के कारण मगध में आवागमन और व्यापारिक सुविधाएँ बढ़ीं जिससे मगध का महत्त्व बहुत बढ़ गया ।
  4. स्वतंत्र वातावरण : मगध का वातावरण अन्य राज्यों की अपेक्षा स्वतंत्र था। यह अनेक जातीय एवं सांस्कृतिक धाराओं का मिलन-बिंदु था। यदि एक ओर यह भूमि जरासंध, बिंबिसार, अजातशत्रु जैसे महान् शासकों की जन्मभूमि थी तो दूसरी ओर वैदिक धर्म के प्रतिरोधी जैन तथा बौद्ध धर्म के उदय का भी केंद्र था । मगध का सामाजिक वातावरण भी अन्य राज्यों से भिन्न था। यह' अनार्यों का देश' माना जाता था । ब्राह्मण संस्कृति द्वारा लगाये गये सामाजिक बंधनों में शिथिलता तथा बौद्ध एवं जैन धर्मों के सार्वभौमिक दृष्टिकोण ने इस क्षेत्र के राजनीतिक दृष्टिकोण को व्यापक बनाया जिससे यह एक शक्तिशाली साम्राज्य का केंद्र बन सका ।
  5. योग्य एवं कुशल शासक : किसी भी राष्ट्र की उन्नति के लिए आवश्यक है कि उसके शासक कुशल, पराक्रमी एवं नीति-निपुण हों। मगध इस संबंध में भाग्यशाली रहा कि उसे बिंबिसार, अजातशत्रु, शिशुनाग, महापद्मनंद जैसे प्रतिभाशाली शासक मिले। मगध के उत्थान में इन शासकों की महत्त्वाकांक्षी विजयों और दूरदर्शी नीतियों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन साम्राज्यवादी शासकों ने अपनी वीरता एवं दूरदर्शिता से उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों का राज्यहित में समुचित उपयोग किया जिससे मगध को प्रथम साम्राज्य होने का गौरव प्राप्त हुआ।

मगध का आरंभिक इतिहास

मगध का उल्लेख पहली बार अथर्ववेद में मिलता है। मगध के प्राचीन इतिहास की रूपरेखा बौद्ध ग्रंथों, महाभारत तथा पुराणों में मिलती है। पुराणों के अनुसार मगध का सबसे प्राचीनतम् राजवंश बृहद्रथ वंश था । महाभारत तथा पुराणों के अनुसार जरासंध के पिता तथा चेदिराज वसु के पुत्र बृहदथ ने स्थापना की थी। भगवान् बुद्ध के पूर्व बृहदथ तथा जरासंध यहाँ के प्रतिष्ठित शासक थे। जरासंध ने काशी, बृहद्रथ वंश की कोशल, चेदि, मालवा, विदेह, अंग, वंग, कलिंग, कश्मीर और गांधार के राजाओं को पराजित किया। इसके बाद यहाँ प्रद्योत वंश का शासन स्थापित हुआ, जिसका अंत करके शिशुनाग ने अपने वंश की स्थापना की। शैशुनाग वंश के बाद नंद वंश ने शासन किया।

बौद्ध ग्रंथ शैशुनाग वंश का कोई उल्लेख नहीं करते और प्रद्योत तथा उसके वंश को अवंति से संबंधित करते हैं। इन ग्रंथों के अनुसार बिंबिसार तथा उसके उत्तराधिकारी शिशुनाग के पूर्वगामी थे और अंत में नंदों ने शासन किया था। इस प्रकार बौद्ध ग्रंथों का क्रम ही अधिक तर्कसंगत लगता है जिसके अनुसार मगध का प्रथम शासक बिंबिसार था, जो हर्यक वंश का था। शिशुनाग वंश ने हर्यक वंश के बाद शासन किया था।

हर्यक वंश

मगध साम्राज्य की स्थापना का श्रेय बिंबिसार को है, किंतु बिंबिसार का संबंध किस कुल से था, स्पष्ट नहीं है। विभिन्न इतिहासकारों ने बिंबिसार को शैशुनाग, हर्यंक तथा नागकुल से संबंधित करने का प्रयास किया है। पुराणों में विवृत वंशावली के आधार पर स्मिथ आदि बिंबिसार को शैशुनाग वंश से संबंधित करते हैं। किंतु पुराणों के अन्य साक्ष्यों एवं बौद्ध ग्रंथों में प्राप्त उल्लेखों से यह स्थापना असत्य सिद्ध हो जाती है।

अश्वघोष के बुद्धचरित में बिंबिसार को हर्यंक कुल से संबंधित बताया गया है, किंतु भंडारकर बिंबिसार को नागकुल से संबंधित करते हैं। इनके अनुसार उस समय उत्तरी भारत में दो नागवंश थे। बिंबिसार आदि का संबंध बड़े नाग कुल से था, जिसका अंतिम शासक नागदास था। मगध के अधीनस्थ शासकों की नियुक्ति इसी नाग वंश से की जाती थी। शिशुनाग संभवतः इसी नाग वंश से संबंधित था। इस पितृघाती बड़े नाग वंश को समाप्त कर जब नागरिकों ने शिशुनाग को नियुक्त किया, तो इसे शिशुनाग वंश नाम दिया गया। भंडारकर के इस मत को माना जा सकता है कि बिंबिसार नागकुल से संबंधित था, किंतु उस समय दो नाग कुल साथ-साथ विद्यमान थे, इस मत से सहमत होना कठिन है।

भंडारकर की भाँति जसवन्त सिंह नेगी भी बिंबिसार को नागकुल से ही संबंधित करते हैं। प्रो. नेगी का सुझाव है कि अश्वघोष ने बिंबिसार को हर्यंक कुल का बताया है क्योंकि इस वंश के शासकों की मुद्राओं पर हरि अर्थात् नाग का चिन्ह उत्कीर्ण रहता था। इस प्रकार बिंबिसार को नाग कुल से संबंधित लगता है और हर्यंकवंश नाग वंश की ही कोई उपशाखा थी ।