भारतीय इतिहास का स्वरूप एवं परिभाषा: Difference between revisions

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Revision as of 13:44, 20 February 2023

प्राचीन भारतीय मनीषियों ने ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख करते समय उनकी तिथियों का उल्लेख नहीं किया है और घटनाओं के सही क्रम पर भी ध्यान नहीं दिया है। अतः प्रारम्भ में एलफिंस्टन, कावेल, फ्लीट आदि विदेशी विद्वानों का विचार था कि भारत के प्राचीन मनीषियों में इतिहास-बुद्धि नहीं थी। अल्बरूनी ने भी लिखा था कि हिन्दू तथ्यों के ऐतिहासिक क्रम पर विशेष ध्यान नहीं देते थे, वे क्रमानुसार विवरण के प्रति लापरवाह थे और जब उन्हें सही सूचना देने के लिए बाध्य किया जाता था तब वे किंकर्तव्यविमूढ़ होकर कहानियां सुनाने लगते थे, किन्तु आज भारतीय इतिहास के मूल रूप की ऊपर दी गई व्याख्या के बाद ये विचार औचित्यहीन हो जाते हैं।

इतिहास-लेखन की प्रवृत्ति भारतीयों में प्रारम्भ से ही विद्यमान थी। ऐतिहासिक दाशराज्ञ- युद्ध का उल्लेख ऋग्वेद के मंत्रों में हुआ है। परीक्षित से लेकर बिम्बसार से पूर्व तक की घटनाओं का उल्लेख ब्राह्मण-ग्रन्थों में मिलता है। मानव-जीवन से सम्बन्धित समस्त नियमों, विशेष रूप से राजधर्म, न्याय आदि का सुन्दर संकलन धर्मसूत्रों में उपलब्ध है। छठी श० ई०पू० से द्वितीय श० ई०पू० के बीच की अनेक ऐतिहासिक घटनाओं के लिए पाणिनि, कात्यायन एवं पतंजलि के विवरणों को प्रामाणिक माना जाता है। द्वितीय श० ई०पू० और उसके बाद के भारतीय इतिहास से सम्बन्धित बहुमूल्य सामग्री स्मृति-ग्रन्थों, महाकाव्यों, पुराणों तथा अन्य बहुसंख्यक समसामयिक ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन-ग्रन्थों में भरी पड़ी है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने लिखा है कि भारतवर्ष में राज्य की महत्वपूर्ण घटनाओं को लिपिबद्ध करने के लिए राजकीय पदाधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी। कश्मीरी विद्वान् कल्हण ने अपनी राजतरंगिणी में उसी गुणवान् कवि को प्रशंसनीय बताया है, जो रागद्वेष का बहिष्कार करके भूतकाल की घटनाओं का यथावत् वर्णन करें-

श्लाघ्यः स एव गुणवान् रागद्वेष बहिष्कृता ।
भूतार्थ कथने यस्य स्थेयस्येव सरस्वती ।।

उपर्युक्त सभी विवरण इस तथ्य के परिचायक हैं कि प्राचीन भारतीयों में इतिहास-लेखन की प्रवृत्ति थी, किन्तु उनका इतिहास-लेखन का दृष्टिकोण विदेशी लेखकों से नितांत भिन्न था।